Friday 25 December 2015

बातचीत ही आखिरी रास्ता

प्रिय मोदी जी,

बड़ी ख़ुशी हुई कि आप पाकिस्तान गये और उम्मीद करता हूँ कि आगे भी ऐसे ही जाते रहेंगे जिससे दोनों देशों के आपसी सम्बंधों में मजबूती आएगी । हिंदुस्तान और पाकिस्तान की अवाम तो हमेशा से बातचीत के पक्ष में रही है पर निजाम हैं कि गोलियों बिना बात ही नहीं करते ।
हमारा तो यहीं मानना है कि बॉर्डर पर जो खून खराबा चलता रहता है वो बन्द हो जाये बस क्योंकि बॉर्डर पर तो हम किसान मजदूरों के भाई, बेटे शहीद होते हैं ।

सबको पता है कि आखिरी हल बातचीत से ही निकलता है । आप, आपके संघ वाले और उनके पाकिस्तानी समकक्ष जमात-उद-दावा वाले भी इसे अच्छे से समझते हैं तो इसे अपनाने में इतनी हिचक क्यों ?
आपसे पहले वाले प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह जी ने 8 जनवरी 2007 को कहा था कि " मैं एक ऐसे दिन का सपना देखता हूँ जब सुबह का नाश्ता अमृतसर में, लंच लाहौर में और डिनर काबुल में होगा " तो उनके इस मानवतापूर्ण कार्य को आगे बढाते हुये इस खाई को संकरी करने की कोशिश कीजिये ।

रही बात पाकिस्तान जाने के असल मक़सद की तो वो चाहे जिंदल का बिज़नस बढ़वाना हो या फोटो खिंचवाना हो या मिठाई खाना हो या कसाब को खिलाई बिरयानी का बदला लेना हो पर आपकी इस यात्रा से छद्म राष्ट्रवादियों ( आपके भक्तों ) में खलबली मची हुई है ।

इस मुद्दे पर आपके बोल ही ऐसे रहे हैं कि लोग तो आपके मजे लेंगे ही । अवाम आपके साथ होगी क्योंकि उसकी भलाई इसी में है । हाँ कुछ लोग बोल रहे हैं कि आपने मनमोहन सिंह को कायर, देहाती औरत और पता नहीं क्या क्या बोला था, तो अब आप जाके क्यों अपनी भद्द पिटवा रहे हैं ? माना आपमें तब इतनी समझ नहीं थी या आपको राजनीती करनी थी । कोई नहीं, ऐसा सबके साथ होता है । हमारे गाँव-देहात में कहते हैं " अक्ल बादाम खाने से नहीं, ठोकर खाने से आती है " और लग रहा है आपको भी ऐसे ही आयी है ।


एक बात और, आपके जो ये भक्त हैं न उनको सम्भाल लो, आपकी इज्जत अपने आप बढ़ जायेगी । और जो थोड़ी बहुत कमी भक्त छोड़ते हैं वो आपके बेलगाम पार्टी सांसद कर देते हैं । तो यही कहना है कि पाक से रिश्ते जोड़ोगे तो भक्तों की देशभक्ति कहीं और शिफ्ट करने का तरीका भी ढूंढ लेना नेपाल , चाइना वगैरा ।

बस अंत में यही गुजारिश है कि जैसे आपका मन किया और पाकिस्तान चले गये वैसा ही कुछ आम लोगों के लिये भी करवा दो, यानि कि दोनों देशों के बीच वीजा खत्म कर दो । वहाँ के कलाकार, खिलाड़ी यहाँ और अपने वहाँ घर समझ के खेलें कमायें, इससे अच्छा और क्या हो सकता है भला । रही बात आतंकियों के आने जाने की तो अभी कौनसा वो आपसे वीजा लेके आते- जाते हैं ।

बातचीत बन्द करने की बोलने वाले या तो बेवकूफ हैं या शांति विरोधी, वरना बातचीत क्यों बन्द की जाये । कोई एक तर्क बता दीजिये आप जिससे आतंकवाद रुक सकता है बातचीत बन्द करने से । मरने वाले हमारे भाई ही हैं फिर वो फौज की वर्दी में मरे या बिना वर्दी के, इससे क्या फ़र्क़ पड़ना है । जो लोग बातचीत बन्द करने की बोल रहे हैं वो एक तरह से आतंकियों की भाषा ही बोल रहे हैं और उनकी बात को पुख्ता कर रहे हैं । मोदी जी आपकी दूसरी बार तारीफ कर रहा हूँ, पिछली बार की तरह इस बार भी भद्द मत पिटवा लेना ।

दुश्मनी जम कर करो लेकिन ये गुंजाइश रहे,
जब कभी हम दोस्त हो जायें तो शर्मिंदा न हों

आपका

आम आदमी


Wednesday 23 December 2015

रेप का उपाय सज़ा या संस्कार ?

कभी किसी लड़की के पीछे खड़े होके देखना कि बाकि लोग उसपर कैसे रिएक्ट करते हैं, सच में खुद पर गुस्सा आ जायेगा कि ये सब हरकतें कई बार हमारी दोस्त, बहन, बेटी के साथ भी होती है पर वो हमे बताती नही है, आवाज नहीं उठाती, वो घुट घुटकर मरती है । क्यों ? क्योंकि उसे हम पर भरोसा नहीं कि हम भी उन लोगों से अलग हैं ।इसके लिये हम ही जिम्मेदार हैं क्योंकि गाहे बगाहे हम उन्हीं लोगों में शामिल होते हैं, बाकि इस भाषणबाज़ी से कुछ न होगा, जब तक आधी आबादी खुद अपनी आवाज नहीं बनेगी । वैसे भी किराये के सैनिकों से लड़ाई नहीं जीती जाती ।

रही बात रेप की तो रेप करने वाले की कोई उम्र नहीं होती, किसी का रेपिस्ट बनना उसकी  मानसिक अवस्था है जिसे हम सज़ा कड़ी कर, जुवेनल एक्ट में उम्र घटाकर नही रोक सकते, इससे तो हम लोगों को अपराध की तरफ धकेलेंगे । सब जानते हैं कि आजतक जो जेल गये हैं उनमें से सुधरे बहुत कम हैं और बिगड़े ज्यादा । उम्र कम करना एक तत्कालीन उपाय हो सकता है पर दीर्घकालीन नहीं ।
आपको कुछ केस बताता हूँ जिनसे आपको अलग - अलग नजरिये देखने को मिलेंगे, जैसे :

1. आजकल जाने अनजाने में कम उम्र के नासमझ बच्चे शारीरिक सम्बन्ध बना लेते है और जब लड़की के घरवालों को पता चलता है तो लड़की को कूट-पीटकर लड़के के खिलाफ केस करवा देते हैं, फिर जब कोई बन्दा एक बार जेल होके आ गया तो उसका डर भी वही रह जाता है, और उसके सुधरने का क्रम बन्द हो जाता है । इसलिये ये कहना कि कठोर नियम से सब सुधर जायेंगे, अतिशयोक्ति होगी ।

2. यदि लड़के की उम्र 18 ( अब तो 16  कहे ) से ज्यादा हो पर लड़की की उम्र 18 से कम हो तो महिला एक्ट के हिसाब से वो रेप या सेक्सुअल हरेसमेंट माना जायेगा, फिर चाहे उसमें लड़की की कितनी भी मर्जी रही हो ।

3.  देश में इन सब कड़े कानूनों का फायदा पीड़ितों को मिलेगा, शंकित करता है । क्योंकि यहाँ जितने रेप होते हैं उनमें 25% ही दर्ज नहीं होते हैं । हम और आपने ये तो आसपास के माहौल में देखा ही होगा । और जितने दर्ज होते हैं उसके 50% प्यार,नाजायज़ सम्बन्ध इत्यादि से जुड़े होते हैं । हालांकि ऐसे केस पैसे ले देके निपट जाते हैं । बाकि बचे 25% एक बिलकुल झूठे होते हैं जो किसी को परेशान करने, पैसे ऐंठने या समाज में बदनाम करने के लिये लगाये जाते हैं ।


4. भारत जैसे संकीर्ण मानसिकता वाले देश में जहाँ इज्जत को सेक्स से जोड़कर देखा जाये वहाँ कड़े नियमों की नहीं लोगों का मानसिक दिवालियेपन खत्म करने की जरूरत ज्यादा है ।

5. जब तक बाजार औरत को भोग की वस्तु की तरह प्रस्तुत करेगा और हम उसको बढ़ावा देते जायेंगे तब तक ये रुकना नामुमकिन है ।

6. समाज जब तक पितृ सत्तात्मक रहेगा तब तक आधी आबादी यूँ ही कुचली जायेगी । कानून बनाना है तो बेहतर शिक्षा का बनाएं । पैसे के बल पर किसी की समझ नहीं बदली जा सकती है ।
घर पर आने वाले पैसे औरत को देके सरकार ये समझती है कि इससे नारी सशक्तिकरण हो जायेगा तो ये सरासर बेवकूफी होगी, क्योंकि जब तक उसमें आत्मविश्वास पैदा नहीं होगा तब तक वो उन पैसों का भी सही जगह उपयोग नहीं कर सकती ।

7. परिवार की लड़कियों को सुरक्षा का अहसास दें न कि तानाशाही का । यदि उनके साथ किसी ने छेड़खानी की भी होगी तो भी हमारे तानाशाही व्यवहार की वजह से बताने से डरेगी, उनको सुरक्षा का भाव दें ।

कल को मेरे घर या जानकारों में भी क्या पता ऐसा कोई हादसा हो जाये और मै भी अपने ऊपर लिखे शब्दों के उलट कार्य करूँ पर इस तथ्य को कोई झुठला नहीं सकता कि सज़ा से रेप कम होंगे, जब तक हम मानसिक रूप से मजबूत नहीं होंगे तब तक रेप कम होने का सवाल ही नहीं उठता ।


अंत में यही कहूँगा कि लड़कियों के प्रति सोच बदलें, उनको अपनी माँ, बहन, बीवी आदि की जगह रखकर सोचें, रेप अपने आप कम हो जायेंगे । मैं किसी अफरोज खान जैसे विकृत सोच वाले दरिंदे के बचाव के पक्ष में नहीं हूँ जिसने किसी के पेट में रोड डालकर उसकी आंतड़ियाँ तक बाहर निकाल दी हो । विकृत मानसिकता वाले अपराधी के विरोध में तब भी सबसे आगे था और आगे भी रहूँगा ।



Tuesday 22 December 2015

Fatehpur Shekhawati : An Open Art Gallery

फतेहपुर शेखावाटी शहर, जहाँ के हम वाशिंदे हैं । इसको दुनिया की ओपन आर्ट गैलरी भी बोला जाता है क्योंकि यहाँ हवेलियों पर चित्रकारी की हुई है, जिसको हम शहर में कहीं भी घूमते हुये देख सकते हैं ।


चित्रकारी भी इतनी सलीके से की गयी है कि आपका मन इसे बार-बार देखने का करेगा । Nadine Le Prince Cultural Center नामक हवेली, जो पहले देवड़ा हवेली के नाम से जाना जाता था, को फ्रांस की एक कलाकार Nadine Le ने सन् 1998 में खरीदा और इस कलाकारी को फिर से जीवंत कर दिया ।

Photo : Nadine Le Prince Cultural Center

इसके अलावा यहाँ देखने योग्य अन्य कई हवेलियाँ भी हैं जिनमें केड़िया हवेली, सराफ हवेली, सिंघानिया हवेली और द्वारकाधीश मंदिर प्रमुख है ।

यहाँ के नवाबों ने शहर के बीच में एक बावड़ी भी बनवाई थी जो कि दुनिया के 17वें अजूबे के तौर पर गीनी जाती है पर आजकल शहर वासियों ने इसको कूड़ादान बना डाला है । इसे कूड़े कूड़ाघर बनाने में क्षेत्रीय नेताओं का भी बराबर का योगदान रहा है, जिनसे जितनी बार इसकी सफाई की पहल की उन्होंने उतनी ही इसकी बेदखली की ।

Photo - Fatehpur Bawari

फतेहपुर के बारे में और अधिक जानने के लिये ये वीडियो भी देख सकते हैं - फतेहपुर का इतिहास
फतेहपुर के शासकों ने लोगों को पीने का पानी उपलब्ध करवाने के लिये जगह जगह बावड़ियां बनवाई, ये बावड़ियां आप शहर के आस पास के गाँवों और सड़क किनारे देख सकते हैं ।

अगर आपको कभी फतेहपुर आना हो तो होली से 10 दिन पहले आयें और होली तक रहे । इस दौरान आपको वहाँ की संस्कृति की हर झलक देखने को मिलेगी जैसे कि गींदड़ नृत्य, ग़ैर नृत्य, चंग - ढ़ोल बजाना और चित्रों से रंगी हवेलियाँ तो खैर है ही । और इस दौरान मौसम भी बहुत खुशनुमा रहता है, रात को हल्की सी ठंड और दिन में हल्की सी गर्मी । गर्मियों में यहाँ तापमान 45℃ और सर्दियों में 0℃ रहता है ।
फतेहपुर आप बस और रेल दोनों से पहुंच सकते हैं । यहाँ टेम्पो बहुत आसानी से उपलब्ध हो जाते हैं, जिनमें 10 रुपये सामान्य किराया है । इस किराये में आप शहर में कहीं भी घूम सकते हैं । लोग भी बहुत मिलनसार हैं ।

Tuesday 15 December 2015

CBI या सरकारी तोता

आज सुबह - सुबह ही खबर मिली कि सीबीआई ने दिल्ली CMO ऑफिस को सील कर दिया, पहले तो सोचा अफवाह होगी फिर किसी मित्र ने फोन करके पूछा तो सोचा कोई सरकारी एजेंसी CMO को सील थोड़ी न कर सकती है । लगा AAP का कोई पब्लिक स्टंट होगा । पर दिल्ली के साथियों से फोन किया तो पता चला सच में CMO को सील कर दिया गया है । सीबीआई ने रेड डाली है । शायद भारतीय राजनीती का ये अनुपम उदाहरण होगा कि मुख्यमंत्री ऑफिस को सील कर दिया गया है और शायद अंतिम भी । पर ये जनता द्वारा चुनी हुई एक सरकार के कार्यक्षेत्र में सीधा हस्तक्षेप था, ऐसा शायद आपातकाल में भी नहीं हुआ था पर अब हुआ यानि कि अघोषित आपातकाल ।

जब CM केजरीवाल ने विरोध दर्ज कराया तो बोला गया कि ये केजरीवाल के खिलाफ नहीं है, उनके अधिकारी राजेन्द्र कुमार के खिलाफ है ।
साथ ही बताया गया कि ये कार्यवाही 2007 के एक केस को लेकर है जिसमें राजेन्द्र कुमार ने एक कंपनी को शिक्षा, IT और VAT विभाग में रहते हुये अनुचित फायदा पहुँचाया था ।
तो क्या सीबीआई को केजरीवाल के ऑफिस में रेड डालनी चाहिये थी कि उन विभागों में जहाँ पुराना रिकॉर्ड रहता है । वैसे भी CM ऑफिस में कोई फ़ाइल 15 दिन से ज्यादा नहीं ठहरती है । सीबीआई को रेड डालनी थी आईटी, वैट और शिक्षा विभाग के रिकॉर्ड रूम में, उस समय के मंत्रियों के घर पर और उस कंपनी पर जिसको फायदा पहुँचाने का आरोप है ।

इस पुरे मामले पर जब  पूर्व CBI अधिकारी NK सिंह से राय माँगी गयी तो उनहोंने कहा " किसी भी अधिकारी पर कार्यवाही करने से पहले उसके सीनियर को भरोसे में लेने का CBI में नियम है !"

Ex jt. director CBI ने भी ट्वीट किया कि "This has been a norm in CBI that whenever a secretary or similar ranked officer is raided, CM is taken into confidence"



हालाँकि केजरीवाल ने कारवाई करने के तरीके पर चाहे जितने सवाल उठाये हो पर कारवाई को बीच में किसी भी तरह से बाधित नहीं किया । केजरीवाल ने इस बीच शाम को कॉन्स्टिट्यूशन क्लब ऑफ़ इंडिया में एक प्रेस कॉन्फ्रेंस की जिसमें सीबीआई की दलीलों को झूठा करार देते हुये उन्होंने केंद्र सरकार पर निम्न आरोप लगाये -

-ये कह रहे हैं कि मेरे शब्द खराब हैं. मैं तो हिसार के पास गांव से हूं. मेरे शब्द खराब हो सकते हैं. आपके तो कर्म फूटे हैं.
-सीबीआई और टूटपुंजियों से दूसरे लोग डर जाएंगे, अरविंद केजरीवाल नहीं डरने वाला.
-मैं मोदीजी से कहना चाहता हूं कि जब तक सांस है मैं देश की सेवा करूंगा.
-अगर ये राजेंद्र कुमार के दफ्तर ठेकेदारी में भ्रष्टाचार उजागर करने आए तो वो जानते होंगे कि ठेके एक आदमी नहीं देता.
-ठेके की फाइल पर मंत्री भी साइन करता है तो उनके ठिकानों पर क्यों नहीं रेड मारी.
-जो भी शीला सरकार में मंत्री थे उनके घर और दफ्तर पर रेड क्यों नहीं मारी गई?
-अगर 2007-14 तक के मामलों की जांच कर रहे थे तो मुख्यमंत्री के दफ्तर में कौन सी फाइल ढूंढ़ रहे थे.
-वैट डिपार्टमेंट पर भी रेड नहीं मारी. जिन ठेकों की बात कर रहे हैं, उनपर छापे नहीं मारे गए. मुख्यमंत्री के दफ्तर में रेड मारी गई.
-मेरे प्रिंसिपल सेक्रेटरी के कुछ पुराने मामलों के बारे में कहा जा रहा है कि शिक्षा सचिव रहने के दौरान अगर गलत ठेके दिए तो आज सीबीआई को शिक्षा विभाग के दफ्तर पर भी छापे मारने चाहिए.

सीबीआई जांच पर सवाल उठाते हुए वित्त मंत्री अरुण जेटली पर आरोप लगाया कि  'सीबीआई आज मेरे दफ्तर में कौन सी फाइलें ढूंढ रही है, मैं आपको बताता हूं. ये कोई भ्रष्टाचार की फाइल नहीं ढूंढ़ रहे. ये जो फाइलें ढूंढ़ रहे हैं वो DDCA की हैं. वो अरुण जेटली को बचाना चाहते हैं. जेटली कई वर्षों से DDCA के चेयरमैन हैं. हमने DDCA में हो रहे भ्रष्टाचार के खिलाफ जांच बिठाई. अभी मेरे पास जांच की रिपोर्ट आई है. ये वही ढूंढ़ रहे हैं.'

अब आगे क्या होगा वो तो बाद में पता चलेगा पर हाल फिलहाल केजरीवाल ने राजनैतिक बढ़त ले ली है। इस मुद्दे पर सोशल मीडिया पर कभी चटखारे लिये गये जिनमें कुछ चुनिंदा यहाँ हैं -

Prajapati Mithun लिखते हैं -

पिछले PM को इन्होंने गूंगा ,बहरा, रोबोट,मौनमोहन पता नहीं क्या क्या उपाधियों से नवाज़ा था।
केजरीवाल को ही AK47 ,भगोड़ा,बीमारू,मफलर मैन और भी नामों से नवाजा।
आज सिर्फ कायर और मनोरोगी सिर्फ दो ही शब्द से असहिष्णु हो गए..?

Aam Aadmi लिखते हैं -

भाई केजरीवाल, आज तूने जो मोदी को जवाब दिया है उससे इतना तो पक्का हो गया कि असली आम आदमी का नेता तू ही है ।

Ramesh Raliya लिखते हैं -

Despite Indian constitution, सीबीआई स्वंतत्र संस्था हैं, पिछली बार (before 2014) कांग्रेस के नेताओ से सुना था, अभी बीजेपी के नेताओ से पता चल रहा है।

ख़बरबाज़ी (@khabarbaazi) लिखते हैं -

सच ये भी है जितनी तत्परता पुलिस और CBI 'आप' से जुड़े लोगो को लेकर दिखाती है, अगर सभी मामलों में दिखाए,तो भारत अपराधशू्न्य देश हो जाए।

Shirish Kunder (@ShirishKunder) लिखते हैं -

At 0:57, Venkaiah Naidu can't resist laughing at his own joke when he says, "We don't monitor CBI"

SANJAY HEGDE (@sanjayuvacha)  लिखते हैं -

If the UPA made the CBI a caged parrot, NDA has made it a pet Rottweiler to be selectively unleashed.

बकौल पत्रकार Ajit Anjum (@ajitanjum) -

CBI doesn’t take orders from govt: BJP - Dec2015 Govt using CBI as a 'private militia': BJP - Nov 2013 वक्त बदला,राय बदली



Thursday 10 December 2015

रमाशंकर यादव 'विद्रोही' - जनता का पागल कवि

न तो मैं सबल हूं,
न तो मैं निर्बल हूं,
मैं कवि हूं।
मैं ही अकबर हूं,
मैं ही बीरबल हूं।

उपरोक्त पंक्तियों को चरितार्थ करने वाले जनकवि रमाशंकर यादव 'विद्रोही' का जन्म 3 दिसंबर 1957 को ऐरी फिरोजपुर ( जिला सुल्तानपुर) में रामनारायण यादव व श्रीमती करमा देवी के घर हुआ । जनता का ये प्रखर कवि ‘विद्रोही’ के नाम से विख्यात था ।
कुछ समय नोकरी करने के बाद 1980 में दिल्ली के जवाहरलाल नेहरू विश्विद्यालय में हिन्दी से एम. ए. करने आ गए। 1983 के छात्र आन्दोलन में बढ़ चढ़ कर हिस्सा लेने के चलते कैंपस से निकल दिए गए। 1985 में उनपर मुक़दमा चला। तबसे उन्होंने आन्दोलन की राह से पीछे पलटकर नहीं देखा ।
विद्रोही जी छात्रों के हर न्यायपूर्ण आंदोलन में तख्ती उठाए, नारे लगाते, कविताएं सुनाते, सड़क पर आखिरी साँस तक साथ रहे । जे़ एन. यू. में रहते करीब 3 दशक तक विद्रोही जी दिल्ली की सडकों पर, बैरिकेडों और पुलिस घेराबन्दियों को तोड़ते हुये हर तरह के शोषण विरुद्ध अपनी आवाज बुलन्द की । दिल्ली स्थित जवाहरलाल नेहरु विश्वविद्यालय (जेएनयू) के छात्रों, चाहे उनके विरोधी विचारधारा के हो, के बीच उनकी कविताएँ ख़ासी लोकप्रिय रही हैं ।

वे कहते थे, "जेएनयू मेरी कर्मस्थली है। मैंने यहाँ के हॉस्टलों में, पहाड़ियों और जंगलों में अपने दिन गुज़ारे हैं।
"
इस क्रांतिकारी कवि का अंत भी क्रांतिकारी रहा, अपनी आखिरी साँस भी विद्रोही जी ने सरकार द्वारा नॉन नेट फैलोशिप बन्द करने के विरोध में आयोजित प्रदर्शन के दौरान ही ली ।




( Photo : JNU छात्रसंघ कार्यालय में अंतिम दर्शनार्थ हेतु जमा छात्र )
( अंतिम यात्रा की ओर )

बकौल गिरिराज वैद " वे बिना किसी आय के स्रोत के छात्रों के सहयोग से किसी तरह कैंपस के अंदर जीवन बसर करते रहे हैं। अगस्त 2010 में जेएनयू प्रशासन ने अभद्र और आपत्तिजनक भाषा के प्रयोग के आरोप में तीन वर्ष के लिए परिसर में उनके प्रवेश पर पाबंदी लगा दी थी। जेएनयू के छात्र समूह ने प्रशासन के इस रवैए का पुरज़ोर विरोध किया। तीन दशकों से घर समझने वाले जेएनयू परिसर से बेदखली उनके लिए मर्मांतक पीड़ा से कम नहीं थी । कुछ लोगो कहते है की वो आधे पागल थे, हाँ जितना उनके बारे में सुना है, वो ऐसे ही थे, ऐसे पागल जिनके जाने की सुनते ही हजारो आँखे बरस पड़ी ।"


उनके बारे में समर अनार्य एक किस्सा बताते हैं -
"जनकवि विद्रोही को इस ठण्ड में सुबह 7 बजे बिना जूतों के जाते देख जेनयू की ही ईरानी-फिलिस्तीनी कामरेड Shadi Farrokhyani ने पूछा कि जूते क्या हुए ?
विद्रोही दा का जवाब था- उस दिन प्रदर्शन में फेंक के पुलिस को मार दिया।"



नितिन पमनानी ने विद्रोही के जीवन संघर्ष पर आधारित एक शॉर्टफिल्म I Am Your Poet (मैं तुम्हारा कवि हूँ )  हिंदी और भोजपुरी में बनाया है। मुंबई अंतरराष्ट्रीय फिल्म महोत्सव में इस फिल्म ने अंतरराष्ट्रीय स्पर्धा श्रेणी में सर्वश्रेष्ठ फिल्म का गोल्डन कौंच पुरस्कार जीता।

विद्रोही मानते थे कि क्रांतिकारी मरते नहीं, जैसे वो अपनी एक कविता में कहते हैं -
“मरने को चे ग्वेरा भी मर गए
और चंद्रशेखर भी
लेकिन वास्तव में कोई नहीं मरा है
सब जिंदा हैं
जब मैं जिंदा हूँ
इस अकाल में
मुझे क्या कम मारा गया है
इस कलिकाल में
अनेकों बार मुझे मारा गया है
अनेकों बार घोषित किया गया है
राष्ट्रीय अखबारों में पत्रिकाओं में
कथाओं में, कहानियों में
कि विद्रोही मर गया।
तो क्या मैं सचमुच मर गया!
नहीं मैं जिंदा हूँ
और गा रहा हूं…… "

अलविदा कामरेड "विद्रोही"
लाल सलाम

उनकी कुछ रचनायें...
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1- पत्थर के भगवान
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तुम्हारे मान लेने से
पत्थर भगवान हो जाता है,
लेकिन तुम्हारे मान लेने से
पत्थर पैसा नहीं हो जाता।
तुम्हारा भगवान पत्ते की गाय है,
जिससे तुम खेल तो सकते हो,
लेकिन दूध नहीं पा सकते।
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2- आसमान में धान
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मैं किसान हूँ
आसमान में धान बो रहा हूँ
कुछ लोग कह रहे हैं कि पगले!
आसमान में धान नहीं जमा करता
मैं कहता हूँ पगले!
अगर ज़मीन पर भगवान जम सकता है
तो आसमान में धान भी जम सकता है
और अब तो
दोनों में से कोई एक होकर रहेगा
या तो ज़मीन से भगवान उखड़ेगा
या आसमान में धान जमेगा।
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3-

मैं भी मरूंगा
और भारत के भाग्य विधाता भी मरेंगे
लेकिन मैं चाहता हूं
कि पहले जन-गण-मन अधिनायक मरें
फिर भारत भाग्य विधाता मरें
फिर साधू के काका मरें
यानी सारे बड़े-बड़े लोग पहले मर लें
फिर मैं मरूं- आराम से
उधर चल कर वसंत ऋतु में
जब दानों में दूध और आमों में बौर आ जाता है
या फिर तब जब महुवा चूने लगता है
या फिर तब जब वनबेला फूलती है
नदी किनारे मेरी चिता दहक कर महके
और मित्र सब करें दिल्लगी
कि ये विद्रोही भी क्या तगड़ा कवि था
कि सारे बड़े-बड़े लोगों को मारकर तब मरा॥



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4-औरते
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'कुछ औरतों ने अपनी इच्छा से कूदकर जान दी थी
ऐसा पुलिस के रिकॉर्ड में दर्ज है
और कुछ औरतें अपनी इच्छा से चिता में जलकर मरी थीं
ऐसा धर्म की किताबों में लिखा हुआ है
मैं कवि हूँ, कर्त्ता हूँ
क्या जल्दी है
मैं एक दिन पुलिस और पुरोहित दोनों को एक साथ
औरतों की अदालत में तलब करूँगा
और बीच की सारी अदालतों को मंसूख कर दूँगा
मैं उन दावों को भी मंसूख कर दूंगा
जो श्रीमानों ने औरतों और बच्चों के खिलाफ पेश किए हैं
मैं उन डिक्रियों को भी निरस्त कर दूंगा
जिन्हें लेकर फ़ौजें और तुलबा चलते हैं
मैं उन वसीयतों को खारिज कर दूंगा
जो दुर्बलों ने भुजबलों के नाम की होंगी.
मैं उन औरतों को
जो अपनी इच्छा से कुएं में कूदकर और चिता में जलकर मरी हैं
फिर से ज़िंदा करूँगा और उनके बयानात
दोबारा कलमबंद करूँगा
कि कहीं कुछ छूट तो नहीं गया?
कहीं कुछ बाक़ी तो नहीं रह गया?
कि कहीं कोई भूल तो नहीं हुई?
क्योंकि मैं उस औरत के बारे में जानता हूँ
जो अपने सात बित्ते की देह को एक बित्ते के आंगन में
ता-जिंदगी समोए रही और कभी बाहर झाँका तक नहीं
और जब बाहर निकली तो वह नहीं उसकी लाश निकली
जो खुले में पसर गयी है माँ मेदिनी की तरह
औरत की लाश धरती माता की तरह होती है
जो खुले में फैल जाती है थानों से लेकर अदालतों तक
मैं देख रहा हूँ कि जुल्म के सारे सबूतों को मिटाया जा रहा है
चंदन चर्चित मस्तक को उठाए हुए पुरोहित और तमगों से लैस
सीना फुलाए हुए सिपाही महाराज की जय बोल रहे हैं.
वे महाराज जो मर चुके हैं
महारानियाँ जो अपने सती होने का इंतजाम कर रही हैं
और जब महारानियाँ नहीं रहेंगी तो नौकरानियाँ क्या करेंगी?
इसलिए वे भी तैयारियाँ कर रही हैं.
मुझे महारानियों से ज़्यादा चिंता नौकरानियों की होती है
जिनके पति ज़िंदा हैं और रो रहे हैं
कितना ख़राब लगता है एक औरत को अपने रोते हुए पति को छोड़कर मरना
जबकि मर्दों को रोती हुई स्त्री को मारना भी बुरा नहीं लगता
औरतें रोती जाती हैं, मरद मारते जाते हैं
औरतें रोती हैं, मरद और मारते हैं
औरतें ख़ूब ज़ोर से रोती हैं
मरद इतनी जोर से मारते हैं कि वे मर जाती हैं
इतिहास में वह पहली औरत कौन थी जिसे सबसे पहले जलाया गया?
मैं नहीं जानता
लेकिन जो भी रही हो मेरी माँ रही होगी,
मेरी चिंता यह है कि भविष्य में वह आखिरी स्त्री कौन होगी
जिसे सबसे अंत में जलाया जाएगा?
मैं नहीं जानता
लेकिन जो भी होगी मेरी बेटी होगी
और यह मैं नहीं होने दूँगा ।।
.
5 - दुनिया
.

जब भी किसी
गरीब आदमी का अपमान करती है
ये तुम्हारी दुनिया,
तो मेरा जी करता है
कि मैं इस दुनिया को
उठाकर पटक दूं।’- रमाशंकर यादव विद्रोही
.
6 - हक़
.
मेरा सर फोड़ दो ,
मेरी कमर तोड़ दो,
पर ये न कहो
कि अपना हक़ छोड़ दो
.
7 - कविता और लाठी
.
तुम मुझसे
हाले-दिल न पूछो ऐ दोस्त!
तुम मुझसे सीधे-सीधे तबियत की बात कहो।
और तबियत तो इस समय ये कह रही है कि
मौत के मुंह में लाठी ढकेल दूं,
या चींटी के मुह में आंटा गेर दूं।
और आप- आपका मुंह,
क्या चाहता है आली जनाब!
जाहिर है कि आप भूखे नहीं हैं,
आपको लाठी ही चाहिए,
तो क्या
आप मेरी कविता को सोंटा समझते है?
मेरी कविता वस्तुतः
लाठी ही है,
इसे लो और भांजो!
मगर ठहरो!
ये वो लाठी नहीं है जो
हर तरफ भंज जाती है,
ये सिर्फ उस तरफ भंजती है
जिधर मैं इसे प्रेरित करता हूं।
मसलन तुम इसे बड़ों के खिलाफ भांजोगे,
भंज जाएगी।
छोटों के खिलाफ भांजोगे,
न,
नहीं भंजेगी।
तुम इसे भगवान के खिलाफ भांजोगे,
भंज जाएगी।
लेकिन तुम इसे इंसान के खिलाफ भांजोगे,
न,
नहीं भंजेगी ।
कविता और लाठी में यही अंतर है।
.
8 - 'धरम'
.
मेरे गांव में लोहा लगते ही
टनटना उठता है सदियों पुराने पीतल का घंट,
चुप हो जाते हैं जातों के गीत,
खामोश हो जाती हैं आंगन बुहारती चूडि़यां,
अभी नहीं बना होता है धान, चावल,
हाथों से फिसल जाते हैं मूसल
और बेटे से छिपाया घी,
उधार का गुड़,
मेहमानों का अरवा,
चढ़ जाता है शंकर जी के लिंग पर।
एक शंख बजता है और
औढरदानी का बूढ़ा गण
एक डिबिया सिंदूर में
बना देता है
विधवाओं से लेकर कुंवारियों तक को सुहागन।
नहीं खत्म होता लुटिया भर गंगाजल,
बेबाक हो जाते हैं फटे हुए आंचल,
और कई गांठों में कसी हुई चवन्नियां।
मैं उनकी बात नहीं करता जो
पीपलों पर घडि़याल बजाते हैं
या बन जाते हैं नींव का पत्थर,
जिनकी हथेलियों पर टिका हुआ है
सदियों से ये लिंग,
ऐसे लिंग थापकों की माएं
खीर खाके बच्चे जनती हैं
और खड़ी कर देती है नरपुंगवों की पूरी ज़मात
मर्यादा पुरुषोत्तमों के वंशज
उजाड़ कर फेंक देते हैं शंबूकों का गांव
और जब नहीं चलता इससे भी काम
तो धर्म के मुताबिक
काट लेते हैं एकलव्यों का अंगूठा
और बना देते हैं उनके ही खिलाफ
तमाम झूठी दस्तखतें।
धर्म आखिर धर्म होता है
जो सूअरों को भगवान बना देता है,
चढ़ा देता है नागों के फन पर
गायों का थन,
धर्म की आज्ञा है कि लोग दबा रखें नाक
और महसूस करें कि भगवान गंदे में भी
गमकता है।
जिसने भी किया है संदेह
लग जाता है उसके पीछे जयंत वाला बाण,
और एक समझौते के तहत
हर अदालत बंद कर लेती है दरवाजा।
अदालतों के फैसले आदमी नहीं
पुरानी पोथियां करती हैं,
जिनमें दर्ज है पहले से ही
लंबे कुर्ते और छोटी-छोटी कमीजों
की दंड व्यवस्था।
तमाम छोटी-छोटी
थैलियों को उलटकर,
मेरे गांव में हर नवरात को
होता है महायज्ञ,
सुलग उठते हैं गोरु के गोबर से
निकाले दानों के साथ
तमाम हाथ,
नीम पर टांग दिया जाता है
लाल हिंडोल।
लेकिन भगवती को तो पसंद होती है
खाली तसलों की खनक,
बुझे हुए चूल्हे में ओढ़कर
फूटा हुआ तवा
मजे से सो रहती है,
खाली पतीलियों में डाल कर पांव
आंगन में सिसकती रहती हैं
टूटी चारपाइयां,
चैरे पे फूल आती हैं
लाल-लाल सोहारियां,
माया की माया,
दिखा देती है भरवाकर
बिना डोर के छलनी में पानी।
जिन्हें लाल सोहारियां नसीब हों
वे देवता होते हैं
और देवियां उनके घरों में पानी भरती हैं।
लग्न की रातों में
कुंआरियों के कंठ पर
चढ़ जाता है एक लाल पांव वाला
स्वर्णिम खड़ाऊं,
और एक मरा हुआ राजकुमार
बन जाता है सारे देश का दामाद
जिसको कानून के मुताबिक
दे दिया जाता है सीताओं की खरीद-फरोख़्त
का लाइसेंस।
सीताएं सफेद दाढि़यों में बांध दी जाती हैं
और धरम की किताबों में
घासें गर्भवती हो जाती हैं।
धरम देश से बड़ा है।
उससे भी बड़ा है धरम का निर्माता
जिसके कमजोर बाजुओं की रक्षा में
तराशकर गिरा देते हैं
पुरानी पोथियों में लिखे हुए हथियार
तमाम चट्टान तोड़ती छोटी-छोटी बाहें,
क्योंकि बाम्हन का बेटा
बूढ़े चमार के बलिदान पर जीता है।
भूसुरों के गांव में सारे बाशिंदे
किराएदार होते हैं
ऊसरों की तोड़ती आत्माएं
नरक में ढकेल दी जाती हैं
टूटती जमीनें गदरा कर दक्षिणा बन जाती हैं,
क्योंकि
जिनकी माताओं ने कभी पिसुआ ही नहीं पिया
उनके नाम भूपत, महीपत, श्रीपत नहीं हो सकते,
उनके नाम
सिर्फ बीपत हो सकते हैं।
धरम के मुताबिक उनको मिल सकता है
वैतरणी का रिजर्वेशन,
बशर्ते कि संकल्प दें अपनी बूढ़ी गाय
और खोज लाएं सवा रुपया कजऱ्,
ताकि गाय को घोड़ी बनाया जा सके।
किसान की गाय
पुरोहित की घोड़ी होती है।
और सबेरे ही सबेरे
जब ग्वालिनों के माल पर
बोलियां लगती हैं,
तमाम काले-काले पत्थर
दूध की बाल्टियों में छपकोरियां मारते हैं,
और तब तक रात को ही भींगी
जांघिए की उमस से
आंखें को तरोताजा करते हुए चरवाहे
खोल देते हैं ढोरों की मुद्धियां।
एक बाणी गाय का एक लोंदा गोबर
गांव को हल्दीघाटी बना देता है,
जिस पर टूट जाती हैं जाने
कितनी टोकरियां,
कच्ची रह जाती हैं ढेर सारी रोटियां,
जाने कब से चला आ रहा है
रोज का ये नया महाभारत
असल में हर महाभारत एक
नए महाभारत की गुंजाइश पे रुकता है,
जहां पर अंधों की जगह अवैधों की
जय बोल दी जाती है।
फाड़कर फेंक दी जाती हैं उन सब की
अर्जियां
जो विधाता का मेड़ तोड़ते हैं।
सुनता हूं एक आदमी का कान फांदकर
निकला था,
जिसके एवज में इसके बाप ने इसको कुछ हथियार दिए थे,
ये आदमी जेल की कोठरी के साथ
तैर गया था दरिया,
घोड़ों की पंूछे झाड़ते-झाड़ते
तराशकर गिरा दिया था राजवंशों का गौरव।
धर्म की भीख, ईमान की गरदन होती है मेरे दोस्त!
जिसको काट कर पोख्ता किए गए थे
सिंहासनों के पाए,
सदियां बीत जाती हैं,
सिंहासन टूट जाते हैं,
लेकिन बाकी रह जाती है खून की शिनाख़्त,
गवाहियां बेमानी बन जाती हैं
और मेरा गांव सदियों की जोत से वंचित हो जाता है
क्योंकि कागजात बताते हैं कि
विवादित भूमि राम-जानकी की थी।
.
9 - "हम गुलामी की अंतिम हदों तक लडेंगे"
.

लेकिन इंसान की कुछ और बात् है
जो तुमको पता है, वो हमको पता है
यहाँ पर कहाँ बेपता बात् है
ये पुल हिल रहा है तो क्यों हिल रहा है
तुमको पता है हमको पता है सबको पता है कि क्यों हिल रहा है
मगर दोस्तों वो भी इंसान थे जिनकी छाती पर ये पुल जमाया गया
अब वही लापता है
न तुमको पता है न हमको पता है न किसीको पता है कि क्यों लापता हैं
तो इस ज़माने में जिनका जमाना है भाई
उन्हीके जमाने में रहते हैं हम
उन्ही की हैं साँसें उन्ही की हैं कहते ,
उन्ही के खातिर दिन रात बहते हैं हम
ये उन्ही का हुकुम है जो मैं कह रहा हूं
उनके सम्मान में मैं कलम तोड़ दूं
ये उन्हीं का हुकुम है मेरे लिये और सबके लिये
कि मैं हक छोड़ दूं
तो लोग हक छोड़ दें पर मैं क्यों छोड़ दूं
मैं तो हक की लड़ाई का हमवार हूं
मैं बताऊँ कि मेरी कमर तोड़ दो, मेरा सर फोड दो
पर ये न कहो कि हक छोड़ दो
तो आप से कह रहा हूं अपनी तरह
अपनी दिक्कत को सबसे जिरह कर रहा
मुझको लगता है कि मैं गुनहगार हूं
क्योंकि रहता हूं मैं कैदियों कि तरह
मुझको लगता है मेरा वतन जेल है
ये वतन छोड़ कर अब कहाँ जाऊँगा
अब कहाँ जाऊँगा जब वतन जेल है
जब सभी कैद हैं तब कहाँ जाऊँगा
मैं तो सब कैदियों से यही कह रहा
आओ उनके हुकुम की उदूली करें
पर सब पूछते हैं कि वो कौन हैं और कहाँ रहता है
मैं बताऊँ कि वो एक जल्लाद है
वो वही है जो कहता है हक छोड़ दो
तुम यहाँ से वहाँ तक कहीं देख लो
गाँव को देख लो शहर को देख लो
अपना घर देख लो अपने को देख लो
इस हक़ की लड़ाई में तुम किस तरफ हो
आपसे कह रहा हूं अपनी तरह
कि मैं तो सताए हुओं की तरफ हूं
और जो भी सताए हुओं की तरफ है
उसको समझता हूं कि अपनी तरफ है
पर उनकी तरफ इसकी उलटी तरफ है
उधर उनकी तरफ आप मत जाइए
जाइए पर अकेले में मत जाइए
ऐसे जायेंगे तो आप फंस जायेंगे
आइये अब हमारी तरफ आइये
आइये इस तरफ की सही राह है
और सही क्या है
हम कौन हैं क्या ये भी नहीं ज्ञात है
हम कमेरों कि भी क्या कोई जाति है
हम कमाने का खाने का परचार ले
अपना परचम लिये अपना मेला लिये
आखरी फैसले के लिये जायेंगे
अपनी महफिल लिये अपना डेरा लिये
उधर उस तरफ जालिमों की तरफ
उनसे कहने कि गर्दन झुकाओ, चलो
और गुनाहों को अपने कबूलो चलो
दोस्तों उस घड़ी के लिये अब चलो
और अभी से चलो उस खुशी के लिये
जिसकी खातिर लड़ाई ये छेडी गयी
जो शुरू से अभी तक चली आ रही
और चली जायेगी अन्त से अन्त तक
हम गुलामी की अंतिम हदों तक लडेंगे

Photo Courtesy : Tehelka

Thursday 26 November 2015

राजनीतिक दल का प्रस्ताव अन्ना का था - अरविन्द केजरीवाल

बमुश्किल साढ़े पांच फुट कद वाले अरविंद केजरीवाल से मिलना कहीं से भी संकेत नहीं देता कि यही शख्स बीते दो सालों में कई बार कई-कई दिनों के लिए ताकतवर भारतीय राजव्यवस्था की आंखों की नींद उड़ा चुका है. जब तक अरविंद किसी महत्वपूर्ण मुद्दे पर बात न करें , उनके साधारण चेहरे-पहनावे और तौर-तरीकों को देखकर विश्वास ही नहीं होता कि वे कभी इन्कम टैक्स कमिश्नर थे, देश में आरटीआई कानून लाने में उनकी एक महत्वपूर्ण भूमिका थी. पिछले साल देश के एक-एक व्यक्ति की जुबान पर उनका नाम था और यही व्यक्ति देश को एक वैकल्पिक राजनीतिक व्यवस्था देने के सपने खुद भी देखता है और औरों को भी दिखाता है. अरविंद की घिसी मोहरी वाली पैंट, साइज से थोड़ी ढीली शर्ट और साधारण फ्लोटर सैंडलें उस आम आदमी की याद दिलाती हैं जो हमारे गांव- कस्बों और गली-कूचों में प्रचुरता में मौजूद है.

अरविंद से बातचीत करना भी उतनी ही सहजता का अहसास कराता है. अर्थ और कानून जैसे जटिल विषय को जिस सरलता से वे आम आदमी को समझाते हैं उससे उनके असाधारण हुनर का कुछ अंदाजा मिलता है. उनके हर आह्वान पर जब सैकड़ों युवा गुरिल्ला शैली में केंद्रीय दिल्ली की सड़कों पर निकल पड़ते है तब उनकी जबरदस्त संगठन क्षमता का भी दर्शन होता है. उनके साथ थोड़ा अधिक समय बिताने पर एक ऐसा व्यक्तित्व उभरता है जिसकी देशभक्ति और ईमानदारी तमाम संदेहों से परे हो.

लेकिन उन पर ये आरोप भी लगते रहे हैं कि उन्होंने अन्ना का इस्तेमाल अपनी राजनीतिक महत्वाकांक्षाओं को साकार करने के लिए किया. हालांकि अरविंद अपने राजनीतिक जुड़ाव को आंदोलन की तार्किक परिणति मानते हैं, मगर उनके और उनके इस कदम के विरोधियों का मानना है कि उनकी तो शुरुआत से ही यही मंशा थी. अरविंद सवाल करते हैं कि यही लोग पहले हमें संघ और भाजपा का मुखौटा कहते थे और अब राजनीतिक महत्वाकांक्षी कह रहे हैं. तो वे लोग पहले यह तय कर लें कि वे किस बात पर कायम रहना चाहते हैं.
राजनीतिक पार्टी ही आंदोलन को आगे बढ़ाने के लिए क्यों जरूरी है ?एक समाजसेवी के रूप में अन्ना की प्रतिष्ठा ज्यादातर महाराष्ट्र तक ही सीमित थी. आज अगर अन्ना देश के घर-घर में पहुंचे हैं तो इसके पीछे अरविंद केजरीवाल की भूमिका बहुत बड़ी रही है. आज अन्ना और अरविंद के रास्ते अलग हो चुके हैं. अन्ना ने खुद को राजनीति से दूर रखने और साथ ही अपना नाम और फोटो राजनीति के लिए इस्तेमाल नहीं करने देने के संकल्प का एलान कर दिया है. इतने बड़े झटके के बाद भी तहलका से हुई पहली विस्तृत बातचीत में अरविंद के उत्साह में किसी भी कमी के दर्शन नहीं होते, न ही लक्ष्य के प्रति उनके समर्पण में कोई कमी समझ में आती है. अन्ना के साथ रिश्तों की ऊंच-नीच, उन पर लग रहे विभिन्न आरोपों, राजनीतिक पार्टी और उसके भविष्य पर अरविंद केजरीवाल के साथ बातचीत.


राजनीतिक पार्टी ही आंदोलन को आगे बढ़ाने के लिए क्यों जरूरी है ?हम लोगों के पास चारा ही क्या बचा था. सब कुछ करके देख लिया, हाथ जोड़कर देख लिया, गिड़गिड़ाकर देख लिया, धरने करके देख लिया, अनशन करके देख लिया, खुद को भूखा मारकर देख लिया. दूसरी बात है कि देश जिस दौर से गुजर रहा है उसमें हम क्या कर सकते हैं. कोयला बेच दिया, लोहा बेच दिया, पूरा गोवा आयरन ओर से खाली हो गया, बेल्लारी खाली हो गया. उड़ीसा में खदानों की खुलेआम चोरी चल रही है. महंगाई की कोई सीमा नहीं है, इस देश में डीजल-पेट्रोल की कीमतें आसमान पर हैं. कहने का अर्थ है कि हमारे पास कोई विकल्प ही नहीं बचा है. व्यवस्था में परिवर्तन लाए बिना यहां कोई बदलाव ला पाना संभव नहीं है.
पर कहा यह जा रहा है कि आपने जुलाई से काफी पहले ही पार्टी बनाने का मन बना लिया था. जुलाई का अनशन जिसमें आप भी भूख हड़ताल पर बैठे थे- एक तरह से स्टेज मैनेज्ड था. आप घोषणा करने से पहले जनता को इकट्ठा करना चाहते थे.
किसने आपसे कहा कि हमने पहले ही राजनीतिक पार्टी बनाने का फैसला कर लिया था?
टीम के ही कई लोगों का यह कहना है. बाद में आपसे अलग हो गए लोग भी इस बात की पुष्टि करते हैं कि जनवरी में पालमपुर में हुई आईएसी की वर्कशॉप में ही चुनावी राजनीति में उतरने का फैसला कर लिया गया था.
ये सब झूठ है. पालमपुर की वर्कशॉप जनवरी में नहीं बल्कि मार्च में हुई थी. ये सच है कि 29 जनवरी को पहली बार पार्टी बनाने और चुनाव लड़ने का विषय हमारी बैठक में सामने आया था. इसके चर्चा में आने की वजह यह थी कि उसी समय पुण्य प्रसून वाजपेयी अन्ना से मिले थे. अन्ना उस समय अस्पताल में भर्ती थे. अस्पताल में ही दोनों के बीच दो घंटे लंबी बातचीत चली थी. मैं उस मीटिंग में नहीं था. पुण्य प्रसून ने ही अन्ना को इस बात के लिए राजी किया था कि यह आंदोलन सड़क के जरिए जितनी सफलता हासिल कर सकता था उतनी इसने कर ली है. अब इसे जिंदा रखने के लिए इसे राजनीतिक रूप देना ही पड़ेगा वरना यह आंदोलन यहीं खत्म हो जाएगा. अन्ना को प्रसून की बात पसंद आई थी. मीटिंग के बाद उन्होंने मुझे बुलाया. उन्होंने मुझसे कहा कि प्रसून जो कह रहे हैं वह बात ठीक लगती है. बल्कि हम दोनों ने तो मिलकर पार्टी का नाम भी सोच लिया है – भ्रष्टाचार मुक्त भारत, पार्टी का नाम होगा. फिर उन्होंने मुझसे पूछा कि तुम्हें क्या लगता है. मेरे लिए यह थोड़ा-सा चौंकाने वाली बात थी. मैं तुरंत कोई फैसला नहीं कर पाया. तो मैंने अन्ना से कहा कि मुझे थोड़ा समय दीजिए. मैं सोचकर बताऊंगा. दो-तीन दिन तक सोचने के बाद मैंने अन्ना से कहा कि आप जो कह रहे हैं मेरे ख्याल से वह ठीक है. हमें चुनावी राजनीति के बारे में सोचना चाहिए. उसी समय पहली बार इसकी चर्चा हुई. उसके बाद अन्ना तमाम लोगों से मिले और उन्होंने इस संबंध में उन लोगों से विचार-विमर्श भी किया. तो राजनीतिक विकल्प की चर्चा तो चल ही रही थी लेकिन जो लोग यह कह रहे हैं कि पहले से फैसला कर लिया गया था और हमारा अनशन मैच फिक्सिंग था वह गलत बात है. अगर यह मैच फिक्सिंग होती तो इसे दस दिन तक खींचने की क्या जरूरत थी. मैं तो शुगर का मरीज था. मेरे पास तो अच्छा बहाना था. दो दिन बाद ही मैं डॉक्टरों से मिलकर अनशन खत्म कर देता. दो दिन बाद मैं एक नाटक कर देता कि मेरी तबीयत खराब हो गई है और मैं अस्पताल में भर्ती हो जाता और हम राजनीतिक पार्टी की घोषणा कर देते.
आप कह रहे हैं कि राजनीतिक दल का प्रस्ताव अन्ना का था. खुद अन्ना ने भी मंच से कई बार यह बात कही थी कि हम राजनीतिक विकल्प पर विचार करेंगे. और अब अन्ना मुकर गए हैं. तो क्या आप इसे इस तरह से देखते हैं कि अन्ना ने धोखा दिया है आपको ?
मैं इसे धोखा तो नहीं कहूंगा, लेकिन उनके विचार तो निश्चित तौर पर बदल गए हैं. अब वे क्यूं बदले हैं इसका मेरे पास कोई जवाब नहीं है. देखिए, धोखा कोई नहीं देता. इतने बड़े आदमी हैं अन्ना तो मैं इसे धोखा तो नहीं कहूंगा. पर उनके विचार क्यों बदले हैं इस बात का जवाब मेरे पास नहीं है. 19 तारीख को कंस्टीट्यूशन क्लब में जो बैठक हुई थी उसमें हम सबने यही तो कहा उनसे कि अन्ना आप ही तो सबसे पहले कहते थे कि हम राजनीतिक पार्टी बनाएंगे तो अब यह बदलाव क्यों. उनका जवाब था कि पहले मैं वह कह रहा था अब यह कह रहा हूं. जब पहले मेरी बात मान ली थी तो अब भी मान लो. उनके विचार तो बदल गए हैं इस दौरान.

एक समय था अरविंद जी, जब आप कहते थे कि मैं अन्ना को सिर्फ दफ्तरी सहायता मुहैया करवाता हूं, नेता तो अन्ना ही हैं. फिर आप यह भी कहते रहे कि अन्ना अगर कहेंगे तो मैं राजनीतिक पार्टी नहीं बनाऊंगा. और अब आप अलगाव और राजनीतिक  पार्टी की जिद पर अड़ गए हैं. क्या इससे यह संकेत नहीं मिलता कि यह सिर्फ आपकी महत्वाकांक्षा के चलते हो रहा है?किस चीज की महत्वाकांक्षा?आप भी हमेशा कहते थे कि जो अन्ना कहेंगे हम वह मान लेंगे. तो अब आप ही उनकी बात क्यों नहीं मान लेते, यह मनमुटाव क्यों?

मैं आपकी बात से सहमत हूं. मैंने कहा था कि अगर अन्ना कहेंगे कि पार्टी मत बनाओ तो मैं मान जाऊंगा. अब मेरे सामने यह धर्म संकट है. मुझे लगता था कि अन्ना पूरा मन बना कर ही राजनीतिक विकल्प की बात कर रहे हैं. और फिर उन्होंने अपना मन बदल दिया. मैं धर्मसंकट में फंस गया हूं. एक तरफ मेरा देश है दूसरी तरफ अन्ना हैं. दोनों में से मैं किसको चुनूं. तो मेरे पास कोई विकल्प नहीं बचा है सिवाय इसमें कूदने के क्योंकि मेरे सामने सवाल है कि भारत बचेगा या नहीं. जिस तरह की लूट यहां मची है संसाधनों की उसे देखते हुए पांच-सात साल बाद कुछ बचेगा भी या नहीं यही डर बना हुआ है.
सत्ता की महत्वाकांक्षा.लोग किसलिए राजनीति में जाते हैं. सत्ता से पैसा और पैसा से सत्ता. अगर पैसा ही कमाना होता मुझे तो इनकम टैक्स कमिश्नर की नौकरी क्या बुरी थी मेरे लिए. एक कमिश्नर एक एमपी से तो ज्यादा ही कमा लेता है. अगर सत्ता का ही लोभ होता तो कमिश्नर की नौकरी छोड़ पाना बहुत मुश्किल होता मेरे लिए. आप सोचिए कि सत्ता का मोह होता तो इस तरह की नौकरी छोड़ पाने की मानसिकता मैं कभी बना पाता? कुछ लोगों का कहना है कि आपने तो शुरू से ही राजनीति में आने का तय कर रखा था. ये बड़ी दिलचस्प बात है. 2010 के सितंबर में मैंने जन लोकपाल बिल का मसौदा तैयार किया, फिर मैंने सोचा कि अब मैं इन-इन लोगों को एक साथ लाऊंगा, फिर अन्ना से संपर्क करूंगा, फिर अन्ना चार अप्रैल को अनशन पर बैठेंगे, फिर खूब भीड़ आ जाएगी और फिर संयुक्त मसौदा समिति बनेगी जो बाद में हमें धोखा देगी और फिर उसके बाद अगस्त का आंदोलन होगा जिसमें पूरा देश जाग जाएगा, और फिर संसद तीन प्रस्ताव पारित करेगी, फिर संसद भी धोखा दे देगी, और फिर मैं राजनीतिक पार्टी बना लूंगा. काश कि मैं अगले तीन साल के लिए इतनी रणनीति बना पाऊं.
आप लोगों ने एक सर्वेक्षण की आड़ में राजनीतिक दल की जरूरत स्थापित करने की कोशिश की. पर उस सर्वेक्षण की अहमियत क्या है? न तो उसका कोई वैज्ञानिक आधार है न ही सैंपल का क्राइटेरिया. 80 फीसदी लोगों ने दल का समर्थन किया है. जब तक हम सैंपल, एज ग्रुप, विविध समुदायों की बात नहीं करेंगे तब तक इसकी क्या अहमियत है? किसी खास सैंपल ग्रुप में हो सकता है कि सारे लोग नक्सलियों को सड़क पर खड़ा करके गोली मारने के पक्षधर हों, या फिर समुदाय विशेष को देश से निकाल देने के पक्षधर हों ऐसे में आपका सर्वेक्षण कोई वैज्ञानिक आधार रखता है?दो चीजें आपके प्रश्न में हैं. एक तो ये कहना कि जो लोग इस आंदोलन से जुड़े थे वे इस मानसिकता के थे या उस मानसिकता के थे. मैं इस बात से सहमत नहीं हूं. ये सारे लोग इसी देश का हिस्सा हैं. इस देश के लोगों को इस तरह से बांटना ठीक नहीं है. दूसरी बात जो आप कह रहे हैं मैं उससे सहमत हूं कि सर्वे इसी तरह से होते हैं. तमाम लोग सर्वे करवाते हैं. हर सर्वे किसी न किसी सैंपल पर आधारित होता है. अब यह आप पर निर्भर है कि आप उसे तवज्जो देना चाहते हैं या नहीं. उस सर्वे के आधार पर आप कोई निर्णय लेना चाहें या न लेना चाहें यह आपके ऊपर निर्भर है. यह तो अन्ना जी ने ही कहा था कि एक बार सर्वे करवा कर जनता का मिजाज जान लेते हैं. देखते हैं वह क्या सोचती है. उनके कहने पर हम लोगों ने सर्वे करवाया. अन्नाजी ने ही कहा था कि इस विधि से सर्वे करवाया जाए. हमने उसी तरीके से सर्वे करवाया. लेकिन उस सर्वे के बावजूद अन्नाजी ने अपना निर्णय इसके खिलाफ दिया. ये यही दिखाता है कि सर्वे आप करवाकर लोगों का मिजाज भांप सकते हैं फिर निर्णय आप अपना ले लीजिए. उस सर्वे ने हमारे निर्णय को प्रभावित किया हो ऐसा मुझे नहीं लगता, लेकिन सर्वे आपको एक मोटी-मोटा आइडिया तो देता है.
ये बात बार-बार आ रही है कि चुनावी विकल्प का इनीशिएटिव अन्ना का था…
इनीशिएटिव अन्ना का था,  लेकिन बाद में वे ही पीछे हट गए.
हम इसको कैसे देखें… 19 तारीख की बैठक के बाद आपकी इस संबंध में फिर से अन्ना से कोई बात हुई?
उसके बाद तो कोई बात नहीं हुई लेकिन उसके पहले मैं लगातार उनके संपर्क में था. लेकिन उनके निर्णय की वजह क्या रही मैं खुद नहीं समझ पा रहा हूं.
दोनो व्यक्ति मिलकर एक-दूसरे को संपूर्ण बनाते थे. अरविंद की संगठन और नेतृत्व क्षमता और अन्ना की भीड़ को खींच लाने की काबिलियत मिलकर दोनों को संपूर्णता प्रदान करती थी. उनके जाने से इस पर कितना असर पड़ा है? इस नुकसान को कैसे भरेंगे?
अन्नाजी के जाने से नुकसान तो हुआ ही है. इस पर कोई दो राय नहीं है.
कोई संभावना शेष बची है अन्ना के आपसे दुबारा जुड़ने की…
बिल्कुल. अन्ना एक देशभक्त व्यक्ति हैं. देश के लिए जो भी अच्छा काम होता है अन्नाजी उसका समर्थन जरूर करेंगे ऐसा मुझे विश्वास है.
हमारी राजनीतिक व्यवस्था में धनबल और बाहुबल का बहुत महत्व रहता है. उससे निपटने का कोई वैकल्पिक तरीका है आपके पास या फिर उन्हीं रास्तों पर चल पड़ेंगे ?
नहीं. उसी को तो बदलने के लिए हम राजनीति में जा रहे हैं. आज की जो राजनीति है वही तो सारी समस्या की जड़ है. आज हमारे सरकारी स्कूल ठीक से काम नहीं कर रहे हैं, सरकारी अस्पतालों में दवाइयां नहीं मिलतीं, सिर्फ इसलिए क्योंकि हमारी राजनीति खराब है. बिजली, पानी, सड़कें ये सब इस अक्षम राजनीति की वजह से ही आज तक खराब बनी हुई हैं. यह तो भ्रष्टाचार का अड्डा बन चुकी है. पैसे और बाहुबल का जोर है. उसी को बदलने के लिए हम राजनीति में जा रहे हैं.
तो तरीका क्या है? क्योंकि पैसे के बिना तो इतने बड़े देश में आप राजनीति नहीं कर पाएंगे, यह सच्चाई है.
इधर बीच मुझसे कई ऐसे लोग मिले हैं जिन्होंने कम से कम पैसे में चुनाव जीतकर दिखाया है. उन लोगों से हम उनके तरीकों पर विचार करेंगे और उन्हें अपनाने की कोशिश करेंगे.

( जैसा कि तहलका को बताया, तहलका पत्रिका का लिंक : http://tehelkahindi.com/%e0%a4%b0%e0%a4%be%e0%a4%9c%e0%a4%a8%e0%a5%80%e0%a4%a4%e0%a4%bf%e0%a4%95-%e0%a4%aa%e0%a4%be%e0%a4%b0%e0%a5%8d%e0%a4%9f%e0%a5%80-%e0%a4%ac%e0%a4%a8%e0%a4%be%e0%a4%a8%e0%a5%87-%e0%a4%95/ )

AAP के साथ 3 साल

28 जनवरी 2011 को सुबह TOI में एक खबर देखी थी; कुछ लोग 30 जनवरी को लोकपाल नाम की संस्था की माँग करेंगे देश भर में । आंदोलन तो मेरा सबसे कमजोर पक्ष है तो सोचा चलेंगे हम भी पर अजमेर कुछ नहीं हुआ ( या हुआ तो मुझे कोई खबर नहीं मिली ) तो 31 को अख़बार में खबर देख के ही खुश हुये कि अरविन्द केजरीवाल, प्रशांत भूषण, मनीष सिसोदिया, किरण बेदी, श्री श्री रविशंकर, मो. मदनी और आर्कबिशप ने लोकपाल बिल के लिये दिल्ली में मार्च का नेतृत्व किया । इनमें से रविशंकर का नाम ही सुना हुआ था बाकि मेरे लिए अनजान थे । फिर अख़बार में कहीं इनकी संस्था का नाम दिखा India Against Corruption तो झट से गूगल किया तो इसका fb पेज चेक किया तो वहाँ से पता चला कि जनलोकपाल आखिर क्या बला है और कौन हैं ये लोग । उसके बाद दिल्ली, जयपुर और अजमेर में हुये सभी अनसन, प्रदर्शन, मार्च  में सक्रिय रूप से भाग लिया ।
फिर जो सफर शुरू हुआ उसके बाद आज 5 साल हो गये हैं जिनमें तबके एक्टिविस्ट आज के सफल पॉलिटिशियन बन गये हैं और आज 3 साल के बाद दिल्ली में सरकार में हैं और पंजाब से 4 MP हैं ...और आगे भी यूँ ही बढ़ते चलेंगे ...( पूरी कहानी कभी और जब टाइम मिला तब लिखेंगे )

Sunday 22 November 2015

तब तुम क्या करोगे ? - ओमप्रकाश वाल्मीकि

यदि तुम्हें ,
धकेलकर गांव से बाहर कर दिया जाय
पानी तक न लेने दिया जाय कुएं से
दुत्कारा फटकारा जाय चिल-चिलाती दोपहर में
कहा जाय तोड़ने को पत्थर
काम के बदले
दिया जाय खाने को जूठन
तब तुम क्या करोगे ?
**
यदि तुम्हें ,
मरे जानवर को खींचकर
ले जाने के लिए कहा जाय
और
कहा जाय ढोने को
पूरे परिवार का मैला
पहनने को दी जाय उतरन
तब तुम क्या करोगे ?
**
यदि तुम्हें ,
पुस्तकों से दूर रखा जाय
जाने नहीं दिया जाय
विद्या मंदिर की चौखट तक
ढिबरी की मंद रोशनी में
काली पुती दीवारों पर
ईसा की तरह टांग दिया जाय
तब तुम क्या करोगे ?
**
यदि तुम्हें ,
रहने को दिया जाय
फूस का कच्चा घर
वक्त-बे-वक्त फूंक कर जिसे
स्वाहा कर दिया जाय
बर्षा की रातों में
घुटने-घुटने पानी में
सोने को कहा जाय
तब तुम क्या करोगे ?
**
यदि तुम्हें ,
नदी के तेज बहाव में
उल्टा बहना पड़े
दर्द का दरवाजा खोलकर
भूख से जूझना पड़े
भेजना पड़े नई नवेली दुल्हन को
पहली रात ठाकुर की हवेली
तब तुम क्या करोगे ?
**
यदि तुम्हें ,
अपने ही देश में नकार दिया जाय
मानकर बंधुआ
छीन लिए जायं अधिकार सभी
जला दी जाय समूची सभ्यता तुम्हारी
नोच-नोच कर
फेंक दिए जाएं
गौरव में इतिहास के पृष्ठ तुम्हारे
तब तुम क्या करोगे ?
**
यदि तुम्हें ,
वोट डालने से रोका जाय
कर दिया जाय लहू-लुहान
पीट-पीट कर लोकतंत्र के नाम पर
याद दिलाया जाय जाति का ओछापन
दुर्गन्ध भरा हो जीवन
हाथ में पड़ गये हों छाले
फिर भी कहा जाय
खोदो नदी नाले
तब तुम क्या करोगे ?
**
यदि तुम्हें ,
सरे आम बेइज्जत किया जाय
छीन ली जाय संपत्ति तुम्हारी
धर्म के नाम पर
कहा जाय बनने को देवदासी
तुम्हारी स्त्रियों को
कराई जाय उनसे वेश्यावृत्ति
तब तुम क्या करोगे ?
**
साफ सुथरा रंग तुम्हारा
झुलस कर सांवला पड़ जायेगा
खो जायेगा आंखों का सलोनापन
तब तुम कागज पर
नहीं लिख पाओगे
सत्यम , शिवम, सुन्दरम!
देवी-देवताओं के वंशज तुम
हो जाओगे लूले लंगड़े और अपाहिज
जो जीना पड़ जाय युगों-युगों तक
मेरी तरह ?
तब तुम क्या करोगे ?

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तब तुम क्या करोगे / ओमप्रकाश वाल्मीकि

Thursday 19 November 2015

" मैं हैरान हूँ "

फेसबुक पर RPS Harit की पोस्ट है  - " मैं हैरान हूँ "

मैं हैरान हूँ
यह सोच कर
किसी औरत ने उठाई नहीं ऊँगली
तुलसी पर
जिसने कहा ---
“ढोल गवांर शूद्र पशु नारी
ये सब ताड़ना के अधिकारी!”
.
मैं हैरान हूँ
किसी औरत ने
जलाई नहीं
‘मनुस्मृति’
पहनाई जिसने
उन्हें, गुलामी की बेड़ियाँ.
.
मैं हैरान हूँ
किसी औरत ने
धिक्कारा नहीं उस ‘राम’ को
जिसने गर्भवती ‘पत्नी’ को
अग्नि-परीक्षा के बाद भी
निकाल दिया घर से
धक्के मारकर.
.
मैं हैरान हूँ
किसी औरत ने
नंगा किया नहीं उस ‘कृष्ण’ को
चुराता था जो नहाती हुई
बालाओं के वस्त्र
‘योगेश्वर’ कहलाकर भी
मानता था रंगरलियाँ
सरेआम.
.
मैं हैरान हूँ
किसी औरत ने
बधिया किया नहीं उस इन्द्र को
जिसने किया था अपनी ही
गुरुपत्नी के साथ
बलात्कार.
.
मैं हैरान हूँ
किसी औरत ने
भेजी नहीं लानत
उन सबको, जिन्होंने
औरत को समझ कर एक ‘वस्तु’
लगा दिया उसे जुए के दाव पर
होता रहा जहाँ ‘नपुंसक योद्धओं’ के बीच
समूची औरत जात का
चीरहरण.
.
मैं हैरान हूँ
यह सोचकर
किसी औरत ने किया नहीं
संयोगिता-अम्बालिका के दिन-दहाड़े
अपहरण का विरोध
आज तक.
.
और .......
मैं हैरान हूँ
इतना कुछ होने के बाद भी
क्यूँ अपना ‘श्रद्धेय’ मानकर
पूजती हैं मेरी माँ-बहनें
उन्हें देवता और
भगवान बनाकर.
.
मैं हैरान हूँ!
.
शर्म से पानी-पानी हो जाता हूँ
उनकी चुप्पी देखकर.
इसे उनकी
सहनशीलता कहूँ, या
अंधश्रद्धा
या, फिर
मानसिक गुलामी की
पराकाष्ठा ?


( इस पोस्ट का उद्देश्य यही है कि शोषित अपनी आवाज खुद उठाये, किराये के कमांडर से जंग नही जीती जा सकती तो लड़ो, जीतने के लिये )

Wednesday 28 October 2015

Global United Panchayat

GUP यानि कि Global United Panchayat.  GUP ( गप्प ) का एक दूसरा मतलब भी है राजस्थानी में बातें करना अर्थात सभी साथियों से दूनिया को एक गाँव मानते हुये विभिन्न मुद्दों पर चर्चा करना । GUP एक ऐसा ग्रुप है जो सारी दूनिया को एक गाँव मानता है और देशों को वार्ड, मोहल्ला इत्यादि, यह पन्चायत मानव व प्रकृति हितैषी चिन्तन रखते हुए कार्य करेगी । किसी भी काम करने के 2 तरीके होते हैं, पहला Part to Whole और दूसरा Whole to Part. इसमें पहला तरीका कर्म का तो दूसरा चिंतन का है और GUP दोनों को कार्य करेगा । हमारा मानना है कि आज के युग में हम इतने करीब आ चुके हैं कि सेकंडों में पूरी दूनिया के लोगों से सम्पर्क स्थापित कर सकते हैं इसलिये सभी के व्यूज एक साथ एक ही स्थान पर जानने के लिये GUP नामक एक मंच बनाया गया । आज सभी देश एक दूसरे पर निर्भर हैं, कुछ मामलों में ज्यादा तो कुछ में कम पर निर्भर हैं । इसलिये एक देश दूसरे देश से प्रभावित होता है फिर चाहे वो आर्थिक रूप से हो या सामाजिक रूप से या सांस्कृतिक रूप से या किसी और रूप में । इसलिए सभी मुद्दों को सभी से डिस्कस करने का रिटायर्ड इंजीनियर श्री हनुमान राम चौधरी द्वारा एक मंच तैयार किया गया, जिसे उन्होंने ने GUP नाम दिया ।


ग्लोबल युनाईटेड पन्चायत का दिनान्क 13 अक्तूबर 2015 से जोधपुर मे कार्यालय स्थापित किया गया है, जैसा कि आप को पूर्व मे अवगत कराया जा चुका है कि इसका ढान्चा 1000 व्यक्तियो से एक पन्चायत के रूप मे होगा । यह व्यक्ति विश्व भर से कही से ही हो सकते है। उक्त 1000 व्यक्ति एक गान्व घोषित करेगे फिलहाल प्रथम गान्व ग्रास यानि घास नाम से घोषित हो चुका है जिसका रजिस्ट्रेशन ओन लाईन चालू है जिसमे आप 9414346435 पर निम्नाकित सूचना मैसेज कर सकते है *****नाम/एस टी डी कोड/लोकसभा क्षेत्र





Saturday 24 October 2015

गेलसप्पां री टोळी

एक बार #केसर_ताई का छोरा जिद करण लाग्या कि
मन्ने गलसप्पो आदमी देखणो है, नीं मं रोटी कोनी खाऊँ ।

ताई - तेरे बाप न देखले, बिसुं बड्डो गेलसप्पो कोई कोनी

छोरा - बां न तो रोजीना देखूं, कोई और देखणो है

ताई - तो तेरे राजू काके न देखले

छोरा - आ तो वाही बात हूगी, अ तो छोटा - मोटा हीं, कोई ढंग को देखणो है

ताई - तो राहुल गाँधी न देखले

छोरा - ना, मन्ने घणे सारे बेवकूफ देखणे है

अब ताई सोची इते सारे गधे एकसाथ कहाँ से दिखाऊ छोरे न ?
तो ताई ने दिमाग भिड़ाया अर् बोली " चाल र छोरा, दिखाऊ तन्ने #गेलसप्पां_री_टोळी
" अर् छोरा हो लिया ताई क साथ, एक खुलो मैदान मं लेगी ।

उड़े लोगां न देख अर् छोरा बोल्या - माँ, अ हाथ में लाठी क्यों ले राखी है ? डांगर चराने वाले हैं के ?

ताई - ना बेटा, अ तो खुद डांगर हीं, अ के चरावंगा डंगरां न

छोरा - तो अ स एक ड्रेस मायं कियां ?

ताई - सब एक सा हीं न, आ अण सबकी स्कूल ह

छोरा - पर आ सबकी निकर तो म्हारी स्कूल की तरहां ह पण ऊपर चोळीयो धौळो क्यों ?

ताई - क्योंकि अ बेवकूफ हीं न

( अब तो आप भी समझ गये होंगे कि यहाँ किसकी बात चल रही है, कहने की क्या जरूरत है )

गलसप्पो - बेवकूफ
छोरा - लड़का
कोनी - नहीं
टोळी - समूह ( Group )
डांगर - जानवर
धौळो - सफेद
चोळीयो - शर्ट

Monday 5 October 2015

तुम बिल्कुल हम जैसे निकले, अब तक कहां छुपे थे भाई ?

पाकिस्तान से फहमीदा रियाज की नज्म,
आज के हिंदुत्व पर :
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तुम बिल्कुल हम जैसे निकले
अब तक कहां छुपे थे भाई ?
वह मूरखता, वह घामड़पन
जिसमें हमने सदी गंवाई
आखिर पहुंची द्वार तुम्हारे
अरे बधाई, बहुत बधाई
भूत धरम का नाच रहा है
कायम हिन्दू राज करोगे ?
सारे उल्टे काज करोगे ?
अपना चमन नाराज करोगे ?
तुम भी बैठे करोगे सोचा,
पूरी है वैसी तैयारी,
कौन है हिन्दू कौन नहीं है
तुम भी करोगे फतवे जारी
वहां भी मुश्किल होगा जीना
दांतो आ जाएगा पसीना
जैसे-तैसे कटा करेगी
वहां भी सबकी सांस घुटेगी
माथे पर सिंदूर की रेखा
कुछ भी नहीं पड़ोस से सीखा !
क्या हमने दुर्दशा बनायी
कुछ भी तुमको नज़र न आयी ?
भाड़ में जाये शिक्षा-विक्षा,
अब जाहिलपन के गुन गाना,
आगे गड्ढा है यह मत देखो
वापस लाओ गया जमाना
हम जिन पर रोया करते थे
तुम ने भी वह बात अब की है
बहुत मलाल है हमको, लेकिन
हा हा हा हा हो हो ही ही
कल दु:ख से सोचा करती थी
सोच के बहुत हँसी आज आयी
तुम बिल्कुल हम जैसे निकले
हम दो कौम नहीं थे भाई
मश्क करो तुम, आ जाएगा
उल्टे पांवों चलते जाना,
दूजा ध्यान न मन में आए
बस पीछे ही नज़र जमाना
एक जाप-सा करते जाओ,
बारम्बार यह ही दोहराओ
कितना वीर महान था भारत !
कैसा आलीशान था भारत !
फिर तुम लोग पहुंच जाओगे
बस परलोक पहुंच जाओगे !
हम तो हैं पहले से वहां पर,
तुम भी समय निकालते रहना,
अब जिस नरक में जाओ, वहां से
चिट्ठी-विट्ठी डालते रहना !

#SaveHumanity

Thursday 1 October 2015

मज़हब ही सिखाता है आपस में बैर रखना

दिल्ली से लगते दादरी में गाय के नाम फिर एक इंसान की जान चली गयी । ये कोई इस देश में पहली बार नहीं हुआ न ही आखिरी बार । सवाल यहाँ गाय का नहीं है, सवाल यहाँ सूअर का नहीं है, सवाल यहाँ रंजिस का नहीं है, सवाल यहाँ आस्था का भी नहीं है और इंसानियत का हो ही नहीं सकता क्योंकि सवाल यहाँ नफरत का है । जैसा कि मेरे FB मित्र Zaheen Saifi ने सटीक लिखा है

" सवाल गाय में आस्था का होता तो अल कबीर जैसे मीट प्लांट में आग लगाते, सवाल आस्था का होता तो ऋषि कपूर जैसो के घर मे घुसकर तोड़ फोड़ करते, सवाल आस्था का होता तो गौमांस खाने वाला किरण रिजिजू जैसा केन्द्रीय मंत्री तुम्हारी अपनी सरकार मे अब तक ना होता, सवाल आस्था का होता तो एक कथित हिंदूवादी सरकार देश को बीफ एक्सपोर्ट में नम्बर वन ना बनाती, सवाल आस्था का होता तो गाय सड़क पर कूड़ा कचरा खाती ना फिरती। पर यहा सवाल आस्था का नही नफरत का था। एक मुस्लिम से नफरत का ।
‪#‎international_shame "


एक सवाल और था  कि  नफरत किस आधार पर की जाये ? आधार बनाया गया गाय का मांस । क्योंकि मृतक का एक बेटा एयरफोर्स में है, इसलिए देशद्रोह का आरोप तो लगा नहीं सकते थे, जैसा कि आज तक लगाते आये हैं । और देश सेवा का जवाब हम ही क्यों दें, उनसे क्यों नहीं माँगा जाता जो आज तक नफरत ही फैलाते आये हैं और कभी भी अपने पेट के सिवाय मानवता या देश सेवा की तरफ ध्यान नहीं गया । क्यों हमें बेगुनाही उन लोगों के सामने साबित करते हैं ? आखिर क्यों ? और कब तक ?

 एक मन्दिर के लाउडस्पीकर से पण्डे द्वारा बोला जाता है कि " इखलाक खाँ नाम के आदमी ने घर में गाय का मांस छुपाकर रखा है, उसने हमारी पवित्र गाय माता की हत्या की है, उसे इसकी सज़ा सभी हिंदुभाई मिलकर दें " और वो भीड़, जो कई सालों से इसी मौके के ताक़ में थी कि कब दंगा किया जाये और कब हम मुस्लिमों को मारे । और वो मौका पण्डे ( जो खुद एक दंगाई है ) ने आज उन दंगाइयों को दे दिया था । बस फिर क्या था, पूरा झुण्ड का झुण्ड उस बाप बेटे पर टूट पड़े, उस आदमी को सिलाई की मशीन और ईंटों की दे देकर मारा गया, घसीट घसीट कर मारा गया ।

वहाँ किस कदर लोगों के मन में नफरत थी उसका एक नमूना NDTV के पत्रकार रवीश कुमार के उस ब्लॉग में मिलता है, जो उन्होंने वहाँ से लौटकर लिखा था । बकौल रवीश
" मेरे साथ सेल्फी खिंचाने आया प्रशांत जल्दी ही तैश में आ गया। ख़ूबसूरत नौजवान और पेशे से इंजीनियर। प्रशांत ने छूटते ही कहा कि किसी को किसी की भावना से खेलने का हक नहीं है। हमारे सहयोगी रवीश रंजन ने टोकते हुए कहा कि मां बाप से तो लोग ठीक से बात नहीं करते और भावना के सवाल पर किसी को मार देते हैं। अच्छा लड़का लगा प्रशांत पर लगा कि उसे इस मौत पर कोई अफ़सोस नहीं है। उल्टा कहने लगा कि जब बंटवारा हो गया था कि हिन्दू यहां रहेंगे और मुस्लिम पाकिस्तान में तो गांधी और नेहरू ने मुसलमानों को भारत में क्यों रोका। इस बात से मैं सहम गया। ये वो बात है जिससे सांप्रदायिकता की कड़ाही में छौंक पड़ती है।
प्रशांत के साथ खूब गरमा गरम बहस हुई लेकिन मैं हार गया। हम जैसे लोग लगातार हार रहे हैं। प्रशांत को मैं नहीं समझा पाया। यही गुज़ारिश कर लौट आया कि एक बार अपने विचारों पर दोबारा सोचना। थोड़ी और किताबें पढ़ लो लेकिन वो निश्चित सा लगा कि जो जानता है वही सही है। वही अंतिम है। आख़िर प्रशांत को किसने ये सब बातें बताईं होंगी? क्या सोमवार रात की भीड़ से बहुत पहले इन नौजवानों के बीच कोई और आया होगा? इतिहास की आधू अधूरी किताबें और बातें लेकर? वो कौन लोग हैं जो प्रशांत जैसे नौजवानों को ऐसे लोगों के बहकावे में आने के लिए अकेला छोड़ गए? खुद किसी विदेशी विश्वविद्यालय में भारत के इतिहास पर अपनी फटीचर पीएचडी जमा करने और वाहवाही लूटने चले गए ।"


जो लोग इस देश में गायों को लेकर इतना रोना - धोना मचाये हुये हैं क्या उन लोगों ने कभी गाय पाली भी है ? पालते तो पता चलता कि इतनी गायें कूड़ा - करकट क्यों खा रही है । क्यों कट रही है । उनके महिमा मंडन अनुसार गाय, गौमूत्र, गोबर से ही इस देश का भला होता तो मजदूर किसान आत्महत्या नहीं करते दलालों ... डूब मरो ... अगली क्रांति तुम्हारे मंदिर - मस्जिदों के खिलाफ होगी ।

ये लेख गायों को काटने के पक्ष में नहीं लिख रहा हूँ बल्कि इसलिये लिख रहा हूँ क्योंकि ये प्रवृति अब सभी धर्मों में फ़ैल चुकी है,  दक्षिण एशिया ऐसे धार्मिक उन्मादों का अड्डा बना हुआ है । उदाहरण के लिये अफगानिस्तान में कुरान के पन्ने फाड़ने के नाम पर इसी तरह फरखुन्दा को पीट-पीटकर मारने और फिर जीवित जला देने का मामला हो या बांग्लादेश में कई ब्लॉगरों की हत्या का मामला हो या भारत में दाभोलकर, पंसारे, कुलबर्गी की निर्मम हत्या का मामला हो; धर्म ने हमारे साथ ये दिक्कत पैदा कर दी है कि हम जिंदगी जीना भूल गये हैं और बिगाड़ना सीख गये हैं । धर्म इंसानियत का दोस्त कम और दुश्मन ज्यादा बन गया है ।




Tuesday 29 September 2015

सेक्स : अपराध या जरूरत

एक मित्र का FB पर विचार

" चिपचिपी गर्मी में पूरे परिवार की रोटीयां बनाकर , बरतन धो कर , फिर सबको दूध देकर बच्चों को सोने के लिये कहती और उनके लिये सुबह के स्कूल की तैयारी करती औरत जब बेड पर आकर गिरती है , और तब भी सोने से ज्यादा उसका ध्यान सुबह जल्दी उठकर फिर से उसी बदमजा बोरिंग रूटीन में जाने पर होता है , उसी औरत में से रात को सनीलियोनी तलाश करना अन्याय ही है "

इस कमेंट पर मेरा जवाब इस प्रकार था

" यदि आप प्रैक्टिकली सोचें तो यही हाल पुरुषों का है, जो सुबह निकलता है और शाम अँधेरे ढ़ले घर पहुँचता है, बॉस के ताने और ओवरटाइम काम के बोझ से अधमरा पति घर पहुँच के बच्चों की जिद को कल परसों पर टालता हुआ जब बेड पर गिरता है तो यही सोचता है कि कल बच्चों की जिद कैसे पूरी की जाये या माँ-बाबा को अस्पताल कब दिखाया जाये या बीवी को शॉपिंग कब करवायी जाये या काश ! उन फाइलों (काम) में कुछ कमी हो जाये या बॉस ताने न मारें । पूरा साल निकल जाता है पर वो परिवार के साथ घूमने के लिये एक सप्ताह कभी भी नहीं निकाल पाता है अब वो अपनी बीवी, जिसे हम सुख- दुःख का साथी या अर्धांगिनी या और न जाने क्या क्या कहते हैं, उसमें सनी लियॉन या कुछ और खोजता है तो क्या गलत करता है ? आखिर दैहिक संतुष्टि भी तो पति और पत्नी की एक-दूसरे के प्रति जिम्मेदारी होती है । यदि पति सनी लियॉन ढूंढता है तो पत्नी भी उसमें टॉम क्रूज या कोई और पोर्न स्टार ढूँढती ही है ।"



पर यहाँ मुख्य सवाल था सेक्स को लेकर, इसे लेकर कुछ सवाल हैं । जैसे -
आखिर क्यों हम लोग सेक्स को इतना महत्वपूर्ण मुद्दा बनाये हुये हैं ?
क्यों हम सेक्स को इतना घिनौना मानते हैं ?
क्यों इसे अपनी इज्जत से जोड़े हुये हैं ?
एक ऐसी क्रिया, जिससे एक नई पीढ़ी आकार लेती है, हमारी संख्या बढ़ाती है, को हमने इतना घृणित क्यों  मान लिया है ?
सेक्स, जो एक जरूरत है, उसपर हम इतना बवाल क्यों मचाये हुये हैं ?
जो बवाल मचा रहे हैं वो क्या बिना सेक्स के इस दूनिया में आये हैं ?
नहीं न ।
सब जानते हैं कि जो इस दुनिया में आया है, वो इसी क्रिया के होने से आया है ।

 सेक्स शरीर की जरूरत है, इससे ज्यादा कुछ नहीं । इसके लिये आपको एक साधारण सा उदाहरण देता हूँ -
एक किसान अपने पालतू जानवरों भैंस, गाय, बकरी आदि को खुद भैंसे, बैल, बकरे के पास ले जाता है क्योंकि अगली बार दुहना है तो बच्चे पैदा होना जरूरी है, और बच्चे तभी होंगे जब सेक्स होगा । तो वो किसान अपने जानवरों के सेक्स को तो खुद आगे चलकर पुरे गाँव में प्रमोट करता है, उसका जानवर जब बोलता है ( यानि पाले आना या सेक्स करना चाहता है ) तो वो सबको बताता है लेकिन दूसरा लड़का ( या लड़की ) उसकी लड़की (या लड़का ) के साथ ये काम करले तो मरने / मारने पर उतारू हो जाता है ।

एक बात पूछता हूँ आप लोगों से कि जब आपका शरीर  भूख, मल, मूत्र, पसीना आदि क्रियाएं करता है तो आप निःसंकोच कहीं भी ये सब कर लेते हैं, वो भी बिना किसी झिझक के । तो इसी प्रकार सेक्स भी शरीर की एक जरूरत है ।
जरूरत बता रहा हूँ इसका मतलब ये नहीं हुआ कि आप हद पार कर जाओ और किसी के साथ भी करो । नहीं, नागरिक समाज ने जो नियम निर्धारित कर रखें हैं उस हिसाब से करो जैसे शादी, लिव इन, गर्लफ्रेंड- बॉयफ्रेंड ( शादी को छोड़कर बाकि का भारत में चलन कम है ) । हम लोग तो किसी के फोन पर बात करने, विपरीत सेक्स के साथ चलने, हाथ पकड़ने, गले मिलने तक को स्वीकार नहीं कर पा रहे हैं तो सेक्स को इतने खुले तौर पर स्वीकार करना तो बड़ी दूर की कोड़ी है इस देश में ।

अभी तो चलो फिर भी कुछ बदलाव हुये हैं वरना पहले पहल तो गाँवों में ( देश की 75 % जनसंख्या ) किसी शादीशुदा जोड़े ने रात को सेक्स किया है, ये मात्र का समाज को पता चल जाने भर से वो अगले दिन किसी से नजरें नहीं मिला पाते थे ।

यौन रोगों के बारे में भ्रांति न फैले, लोग एड्स जैसी गंभीर बीमारी का खुलकर इलाज करवा सके और समाज में हँसी का पात्र न बनें, दुकान में इससे बचाव के लिये बिना घबरायें कंडोम खरीद सके, आने वाली पीढ़ी को इस बारे में पूरा ज्ञान मिले और आपका बच्चा छुप-छुपकर कुछ गलत सिखने के बजाय आसानी से सही ज्ञान ले इसके लिये जरूरी है कि सेक्स को किताबों में लाइए । सेक्स को हौव्वा मत बनाइये, सेक्स को सेक्स ही रहने दें । बदलाव जरूरी हैं, इसलिये बदलाव में भागीदार बनें


Friday 25 September 2015

अमेरिका कभी भी किसी का दोस्त नही हो सकता ! --- अफ़ज़ल ख़ान

( नरेन्द्र मोदी के अमरीका दौरे पर एक विचारनीय लेख )

जैसा कहा जाता है कि पुलिस की न दोस्ती अच्छी और न ही दुश्मनी अच्छी। ये बात आज के विश्व की पुलिस (अमेरिका) पर भी लागू होती है। अमेरिका ने समय पर कभी भी अपने दोस्त मुल्कों का साथ नही दिया है, बल्कि वक़्त पर धोखा ही दिया है। ये मैं नही अमेरिका का इतिहास बताता है।
आइये हम आप को अमेरिका का इतिहास बताते है कि अपना मतलब निकालने के बाद कभी भी वक़्त पर साथ नही दिया है। ईरान का बादशाह रज़ा शाह पहेलवी अमेरिका का सब से वफादार दोस्त था। यूरोप का मीडिया उसे अमेरिकन गवर्नर कहता था। उसने अमेरिका के कहने पर ईरान में पर्दे पर पाबंदी लगा दी थी। अगर कोई महिला परदे मे निकलती थी तो पुलिस बुर्का फाड़ देती थी। शाह ईरान ने लड़कियों के स्कूलों मे स्कर्ट को यूनिफॉर्म बना दिया था। शराब, नाच खुले आम होने लगा था। ईरान पूरे विश्व मे अकेला मुल्क था जहा स्कूलों मे भी शराब की दुकानें थी। उसके बाद जब ईरान मे इंकलाब आया और शाह ईरान मुल्क से भागा और अमेरिका से मदद मांगी तो अमेरिका ने आंखे फेर ली और अमेरिका मे घुसाने से भी मना कर दिया। अमेरिका ने उस के अकाउंट भी सीज़ कर दिए, इस तरह 2 साल तक इधर-उधर भागा फिरता रहा और मिस्र में मारा गया।
अनास-तसिसु निकरागुआ (NICARAGUA) मे AMERICAN एजेंट था, अमेरिका ने उसे डॉलर और हथियार दे कर कम्यूनिज़्म के खिलाफ खड़ा किया और अमेरिका के युद्ध को अपना युद्ध समझ कर लड़ता रहा, मगर जब उस को वहा से भागना पड़ा तो अमेरिका ने उसे पहचानने से इंकार कर दिया और उसके अमेरिका आने पर भी प्रतिबंध लगा दिया। इस तरह जंगलो और पहाड़ों मे छुप-छुप कर 1980 में जंगल मे उस की मौत हो गयी।
चिली ( CHILLI) के फ़ौजी चीफ जनरल अगुस्तो पनुशे ने 1973 अमेरिका की मदद से अपनी चुनी हुई हुकूमत को हटा कर गद्दी पर क़ब्ज़ा कर लिया। पानुषे ने अमेरिका के कहने पर हज़ारों नागरिकों की हत्या कराई। अमेरिका के कहने पर कई संगठनो पर पाबंदियां लगा दी और जनता पर बहुत जुल्म किया, मगर जब हुकूमत बदली और पानुषे वहां से भागा तो अमेरिका ने उस की कोई मदद नही की, आखिर मे जब वो इंग्लैंड पहुंचा तो वहां की पुलिस ने उसे पकड़ कर चिली हुकूमत को सौंप दिया, जहां 2006 मे उस की मौत हो गयी।
अंगोला ( ANGOLA) का विद्रोही सरदार जूनास सुमोनी भी अमेरिका के सहारे ही हुकूमत संभाला और अपने मुल्क मे अमेरिका के हित के लिये काम करता रहा, लेकिन 1992 मे अमेरिका ने उसे कम्यूनिस्ट के साथ समझौता करने के लिये कहा जिस के कारण उसे मुल्क छोड़ना पड़ा और छुप-छुप कर अपनी जिंदगी बचता रहा मगर अमेरिका ने पहचानने से इंकार कर दिया।
पनामा (PANAMA) का जेनरल नुरीगा भी अमेरिका के लिये काम करता रहा और अमेरिका ने उसे कम्यूनिस्टों के खिलाफ इस्तमाल किया, मगर हुकूमत बदली और उसे जेल मे डाल दिया उस ने अपने बचाव के लिये अमेरिका से गुहार लगाई मगर अमेरिका ने मदद से इंकार कर दिया।
फिलिपीन्स का राष्ट्रपति मार्कोस 22 साल तक अमेरिका के हित मे अपने मुल्क में अमेरिका के लिये काम करता रहा। उस ने अमेरिका के इशारे पर ही अपने मुल्क मे कम्यूनिस्टों को चुन-चुन कर खत्म कर दिया, लेकिन 1986 मे अमेरिका ने ही उस की हुकूमत खतम करा दी, जिस के बाद मार्कोस ने अपनी पूरी ज़िंदगी एक छोटे मकान मे गुजार दी, मगर अमेरिक ने उसे पूछा तक नही।
सद्दाम हुसैन की कहानी तो पूरा दुनिया जानती है, अमेरिका के कहने पर ईरान पर हमला किया और 8 वर्ष तक जंग लड़ा जिस मे 10 लाख से अधिक लोग मारे गये। 1990 तक अमेरिका दोस्त रहा, मगर अमेरिका ने तेल की लालच मे इराक पर हमला कर दिया और फिर पूरी दुनिया ने देखा कि अमेरिका के इशारे पर 2006 मे उसे फांसी दे दी गयी। अमेरिका ने ओसामा बिन लादेन की मदद से अल-कायदा को बनाया और रूस के खिलाफ उस का इस्तेमाल किया, जब रूस बर्बाद हो गया और अल-कायदा से कोई मतलब नही रहा तो अये आतंकी संगठन घोषित कर दिया, जिस के फलस्वरूप अल-कायदा ने किस तरह अमेरिका से बदला लिया पूरी दुनिया ने देखा।
अमेरिका के henry kisenger ने एक बार कहा था कि "अगर आप अमेरिका के दुश्मन है तो आप के बचने के मौके हैं लेकिन बदकिस्मती से आप उस के दोस्त बन गये तो कोई भी आप को अमेरिका से नही बच सकता।"
हमे शह ईरान से सद्दाम हूसेन तक का अंजाम देखना होगा कि अमेरिका अपने दोस्तों को किस तरह धोखा देता है।
इसलिये हमारे सरकार को चाहिये कि हम अमेरिका से अधिक रूस को दोस्त बनाये रखे और चीन से भी अपनी दोस्ती बनाने की कोशिश करें क्योंकि अगला सुपर पावर चीन को ही बनना है। हमे इतिहास से सबक लेना चाहिये और अमेरिका से दूरी बनाने में ही लाभ है।

( मोहम्मद अफजल खान facebook पर संजीदा लेखन करते हैं और उनकी टिप्पणियाँ बेहद तार्किक होती हैं )

डॉ कलाम को श्रद्धांजलि

डॉ. एपीजे अब्दुल कलाम (Avul Pakir Jainulabdeen Abdul Kalam ) का जन्म 15 October 1931 को तमिलनाडु के Rameswaram में हुआ । इन्होंने 1960 ...