Thursday 26 November 2015

राजनीतिक दल का प्रस्ताव अन्ना का था - अरविन्द केजरीवाल

बमुश्किल साढ़े पांच फुट कद वाले अरविंद केजरीवाल से मिलना कहीं से भी संकेत नहीं देता कि यही शख्स बीते दो सालों में कई बार कई-कई दिनों के लिए ताकतवर भारतीय राजव्यवस्था की आंखों की नींद उड़ा चुका है. जब तक अरविंद किसी महत्वपूर्ण मुद्दे पर बात न करें , उनके साधारण चेहरे-पहनावे और तौर-तरीकों को देखकर विश्वास ही नहीं होता कि वे कभी इन्कम टैक्स कमिश्नर थे, देश में आरटीआई कानून लाने में उनकी एक महत्वपूर्ण भूमिका थी. पिछले साल देश के एक-एक व्यक्ति की जुबान पर उनका नाम था और यही व्यक्ति देश को एक वैकल्पिक राजनीतिक व्यवस्था देने के सपने खुद भी देखता है और औरों को भी दिखाता है. अरविंद की घिसी मोहरी वाली पैंट, साइज से थोड़ी ढीली शर्ट और साधारण फ्लोटर सैंडलें उस आम आदमी की याद दिलाती हैं जो हमारे गांव- कस्बों और गली-कूचों में प्रचुरता में मौजूद है.

अरविंद से बातचीत करना भी उतनी ही सहजता का अहसास कराता है. अर्थ और कानून जैसे जटिल विषय को जिस सरलता से वे आम आदमी को समझाते हैं उससे उनके असाधारण हुनर का कुछ अंदाजा मिलता है. उनके हर आह्वान पर जब सैकड़ों युवा गुरिल्ला शैली में केंद्रीय दिल्ली की सड़कों पर निकल पड़ते है तब उनकी जबरदस्त संगठन क्षमता का भी दर्शन होता है. उनके साथ थोड़ा अधिक समय बिताने पर एक ऐसा व्यक्तित्व उभरता है जिसकी देशभक्ति और ईमानदारी तमाम संदेहों से परे हो.

लेकिन उन पर ये आरोप भी लगते रहे हैं कि उन्होंने अन्ना का इस्तेमाल अपनी राजनीतिक महत्वाकांक्षाओं को साकार करने के लिए किया. हालांकि अरविंद अपने राजनीतिक जुड़ाव को आंदोलन की तार्किक परिणति मानते हैं, मगर उनके और उनके इस कदम के विरोधियों का मानना है कि उनकी तो शुरुआत से ही यही मंशा थी. अरविंद सवाल करते हैं कि यही लोग पहले हमें संघ और भाजपा का मुखौटा कहते थे और अब राजनीतिक महत्वाकांक्षी कह रहे हैं. तो वे लोग पहले यह तय कर लें कि वे किस बात पर कायम रहना चाहते हैं.
राजनीतिक पार्टी ही आंदोलन को आगे बढ़ाने के लिए क्यों जरूरी है ?एक समाजसेवी के रूप में अन्ना की प्रतिष्ठा ज्यादातर महाराष्ट्र तक ही सीमित थी. आज अगर अन्ना देश के घर-घर में पहुंचे हैं तो इसके पीछे अरविंद केजरीवाल की भूमिका बहुत बड़ी रही है. आज अन्ना और अरविंद के रास्ते अलग हो चुके हैं. अन्ना ने खुद को राजनीति से दूर रखने और साथ ही अपना नाम और फोटो राजनीति के लिए इस्तेमाल नहीं करने देने के संकल्प का एलान कर दिया है. इतने बड़े झटके के बाद भी तहलका से हुई पहली विस्तृत बातचीत में अरविंद के उत्साह में किसी भी कमी के दर्शन नहीं होते, न ही लक्ष्य के प्रति उनके समर्पण में कोई कमी समझ में आती है. अन्ना के साथ रिश्तों की ऊंच-नीच, उन पर लग रहे विभिन्न आरोपों, राजनीतिक पार्टी और उसके भविष्य पर अरविंद केजरीवाल के साथ बातचीत.


राजनीतिक पार्टी ही आंदोलन को आगे बढ़ाने के लिए क्यों जरूरी है ?हम लोगों के पास चारा ही क्या बचा था. सब कुछ करके देख लिया, हाथ जोड़कर देख लिया, गिड़गिड़ाकर देख लिया, धरने करके देख लिया, अनशन करके देख लिया, खुद को भूखा मारकर देख लिया. दूसरी बात है कि देश जिस दौर से गुजर रहा है उसमें हम क्या कर सकते हैं. कोयला बेच दिया, लोहा बेच दिया, पूरा गोवा आयरन ओर से खाली हो गया, बेल्लारी खाली हो गया. उड़ीसा में खदानों की खुलेआम चोरी चल रही है. महंगाई की कोई सीमा नहीं है, इस देश में डीजल-पेट्रोल की कीमतें आसमान पर हैं. कहने का अर्थ है कि हमारे पास कोई विकल्प ही नहीं बचा है. व्यवस्था में परिवर्तन लाए बिना यहां कोई बदलाव ला पाना संभव नहीं है.
पर कहा यह जा रहा है कि आपने जुलाई से काफी पहले ही पार्टी बनाने का मन बना लिया था. जुलाई का अनशन जिसमें आप भी भूख हड़ताल पर बैठे थे- एक तरह से स्टेज मैनेज्ड था. आप घोषणा करने से पहले जनता को इकट्ठा करना चाहते थे.
किसने आपसे कहा कि हमने पहले ही राजनीतिक पार्टी बनाने का फैसला कर लिया था?
टीम के ही कई लोगों का यह कहना है. बाद में आपसे अलग हो गए लोग भी इस बात की पुष्टि करते हैं कि जनवरी में पालमपुर में हुई आईएसी की वर्कशॉप में ही चुनावी राजनीति में उतरने का फैसला कर लिया गया था.
ये सब झूठ है. पालमपुर की वर्कशॉप जनवरी में नहीं बल्कि मार्च में हुई थी. ये सच है कि 29 जनवरी को पहली बार पार्टी बनाने और चुनाव लड़ने का विषय हमारी बैठक में सामने आया था. इसके चर्चा में आने की वजह यह थी कि उसी समय पुण्य प्रसून वाजपेयी अन्ना से मिले थे. अन्ना उस समय अस्पताल में भर्ती थे. अस्पताल में ही दोनों के बीच दो घंटे लंबी बातचीत चली थी. मैं उस मीटिंग में नहीं था. पुण्य प्रसून ने ही अन्ना को इस बात के लिए राजी किया था कि यह आंदोलन सड़क के जरिए जितनी सफलता हासिल कर सकता था उतनी इसने कर ली है. अब इसे जिंदा रखने के लिए इसे राजनीतिक रूप देना ही पड़ेगा वरना यह आंदोलन यहीं खत्म हो जाएगा. अन्ना को प्रसून की बात पसंद आई थी. मीटिंग के बाद उन्होंने मुझे बुलाया. उन्होंने मुझसे कहा कि प्रसून जो कह रहे हैं वह बात ठीक लगती है. बल्कि हम दोनों ने तो मिलकर पार्टी का नाम भी सोच लिया है – भ्रष्टाचार मुक्त भारत, पार्टी का नाम होगा. फिर उन्होंने मुझसे पूछा कि तुम्हें क्या लगता है. मेरे लिए यह थोड़ा-सा चौंकाने वाली बात थी. मैं तुरंत कोई फैसला नहीं कर पाया. तो मैंने अन्ना से कहा कि मुझे थोड़ा समय दीजिए. मैं सोचकर बताऊंगा. दो-तीन दिन तक सोचने के बाद मैंने अन्ना से कहा कि आप जो कह रहे हैं मेरे ख्याल से वह ठीक है. हमें चुनावी राजनीति के बारे में सोचना चाहिए. उसी समय पहली बार इसकी चर्चा हुई. उसके बाद अन्ना तमाम लोगों से मिले और उन्होंने इस संबंध में उन लोगों से विचार-विमर्श भी किया. तो राजनीतिक विकल्प की चर्चा तो चल ही रही थी लेकिन जो लोग यह कह रहे हैं कि पहले से फैसला कर लिया गया था और हमारा अनशन मैच फिक्सिंग था वह गलत बात है. अगर यह मैच फिक्सिंग होती तो इसे दस दिन तक खींचने की क्या जरूरत थी. मैं तो शुगर का मरीज था. मेरे पास तो अच्छा बहाना था. दो दिन बाद ही मैं डॉक्टरों से मिलकर अनशन खत्म कर देता. दो दिन बाद मैं एक नाटक कर देता कि मेरी तबीयत खराब हो गई है और मैं अस्पताल में भर्ती हो जाता और हम राजनीतिक पार्टी की घोषणा कर देते.
आप कह रहे हैं कि राजनीतिक दल का प्रस्ताव अन्ना का था. खुद अन्ना ने भी मंच से कई बार यह बात कही थी कि हम राजनीतिक विकल्प पर विचार करेंगे. और अब अन्ना मुकर गए हैं. तो क्या आप इसे इस तरह से देखते हैं कि अन्ना ने धोखा दिया है आपको ?
मैं इसे धोखा तो नहीं कहूंगा, लेकिन उनके विचार तो निश्चित तौर पर बदल गए हैं. अब वे क्यूं बदले हैं इसका मेरे पास कोई जवाब नहीं है. देखिए, धोखा कोई नहीं देता. इतने बड़े आदमी हैं अन्ना तो मैं इसे धोखा तो नहीं कहूंगा. पर उनके विचार क्यों बदले हैं इस बात का जवाब मेरे पास नहीं है. 19 तारीख को कंस्टीट्यूशन क्लब में जो बैठक हुई थी उसमें हम सबने यही तो कहा उनसे कि अन्ना आप ही तो सबसे पहले कहते थे कि हम राजनीतिक पार्टी बनाएंगे तो अब यह बदलाव क्यों. उनका जवाब था कि पहले मैं वह कह रहा था अब यह कह रहा हूं. जब पहले मेरी बात मान ली थी तो अब भी मान लो. उनके विचार तो बदल गए हैं इस दौरान.

एक समय था अरविंद जी, जब आप कहते थे कि मैं अन्ना को सिर्फ दफ्तरी सहायता मुहैया करवाता हूं, नेता तो अन्ना ही हैं. फिर आप यह भी कहते रहे कि अन्ना अगर कहेंगे तो मैं राजनीतिक पार्टी नहीं बनाऊंगा. और अब आप अलगाव और राजनीतिक  पार्टी की जिद पर अड़ गए हैं. क्या इससे यह संकेत नहीं मिलता कि यह सिर्फ आपकी महत्वाकांक्षा के चलते हो रहा है?किस चीज की महत्वाकांक्षा?आप भी हमेशा कहते थे कि जो अन्ना कहेंगे हम वह मान लेंगे. तो अब आप ही उनकी बात क्यों नहीं मान लेते, यह मनमुटाव क्यों?

मैं आपकी बात से सहमत हूं. मैंने कहा था कि अगर अन्ना कहेंगे कि पार्टी मत बनाओ तो मैं मान जाऊंगा. अब मेरे सामने यह धर्म संकट है. मुझे लगता था कि अन्ना पूरा मन बना कर ही राजनीतिक विकल्प की बात कर रहे हैं. और फिर उन्होंने अपना मन बदल दिया. मैं धर्मसंकट में फंस गया हूं. एक तरफ मेरा देश है दूसरी तरफ अन्ना हैं. दोनों में से मैं किसको चुनूं. तो मेरे पास कोई विकल्प नहीं बचा है सिवाय इसमें कूदने के क्योंकि मेरे सामने सवाल है कि भारत बचेगा या नहीं. जिस तरह की लूट यहां मची है संसाधनों की उसे देखते हुए पांच-सात साल बाद कुछ बचेगा भी या नहीं यही डर बना हुआ है.
सत्ता की महत्वाकांक्षा.लोग किसलिए राजनीति में जाते हैं. सत्ता से पैसा और पैसा से सत्ता. अगर पैसा ही कमाना होता मुझे तो इनकम टैक्स कमिश्नर की नौकरी क्या बुरी थी मेरे लिए. एक कमिश्नर एक एमपी से तो ज्यादा ही कमा लेता है. अगर सत्ता का ही लोभ होता तो कमिश्नर की नौकरी छोड़ पाना बहुत मुश्किल होता मेरे लिए. आप सोचिए कि सत्ता का मोह होता तो इस तरह की नौकरी छोड़ पाने की मानसिकता मैं कभी बना पाता? कुछ लोगों का कहना है कि आपने तो शुरू से ही राजनीति में आने का तय कर रखा था. ये बड़ी दिलचस्प बात है. 2010 के सितंबर में मैंने जन लोकपाल बिल का मसौदा तैयार किया, फिर मैंने सोचा कि अब मैं इन-इन लोगों को एक साथ लाऊंगा, फिर अन्ना से संपर्क करूंगा, फिर अन्ना चार अप्रैल को अनशन पर बैठेंगे, फिर खूब भीड़ आ जाएगी और फिर संयुक्त मसौदा समिति बनेगी जो बाद में हमें धोखा देगी और फिर उसके बाद अगस्त का आंदोलन होगा जिसमें पूरा देश जाग जाएगा, और फिर संसद तीन प्रस्ताव पारित करेगी, फिर संसद भी धोखा दे देगी, और फिर मैं राजनीतिक पार्टी बना लूंगा. काश कि मैं अगले तीन साल के लिए इतनी रणनीति बना पाऊं.
आप लोगों ने एक सर्वेक्षण की आड़ में राजनीतिक दल की जरूरत स्थापित करने की कोशिश की. पर उस सर्वेक्षण की अहमियत क्या है? न तो उसका कोई वैज्ञानिक आधार है न ही सैंपल का क्राइटेरिया. 80 फीसदी लोगों ने दल का समर्थन किया है. जब तक हम सैंपल, एज ग्रुप, विविध समुदायों की बात नहीं करेंगे तब तक इसकी क्या अहमियत है? किसी खास सैंपल ग्रुप में हो सकता है कि सारे लोग नक्सलियों को सड़क पर खड़ा करके गोली मारने के पक्षधर हों, या फिर समुदाय विशेष को देश से निकाल देने के पक्षधर हों ऐसे में आपका सर्वेक्षण कोई वैज्ञानिक आधार रखता है?दो चीजें आपके प्रश्न में हैं. एक तो ये कहना कि जो लोग इस आंदोलन से जुड़े थे वे इस मानसिकता के थे या उस मानसिकता के थे. मैं इस बात से सहमत नहीं हूं. ये सारे लोग इसी देश का हिस्सा हैं. इस देश के लोगों को इस तरह से बांटना ठीक नहीं है. दूसरी बात जो आप कह रहे हैं मैं उससे सहमत हूं कि सर्वे इसी तरह से होते हैं. तमाम लोग सर्वे करवाते हैं. हर सर्वे किसी न किसी सैंपल पर आधारित होता है. अब यह आप पर निर्भर है कि आप उसे तवज्जो देना चाहते हैं या नहीं. उस सर्वे के आधार पर आप कोई निर्णय लेना चाहें या न लेना चाहें यह आपके ऊपर निर्भर है. यह तो अन्ना जी ने ही कहा था कि एक बार सर्वे करवा कर जनता का मिजाज जान लेते हैं. देखते हैं वह क्या सोचती है. उनके कहने पर हम लोगों ने सर्वे करवाया. अन्नाजी ने ही कहा था कि इस विधि से सर्वे करवाया जाए. हमने उसी तरीके से सर्वे करवाया. लेकिन उस सर्वे के बावजूद अन्नाजी ने अपना निर्णय इसके खिलाफ दिया. ये यही दिखाता है कि सर्वे आप करवाकर लोगों का मिजाज भांप सकते हैं फिर निर्णय आप अपना ले लीजिए. उस सर्वे ने हमारे निर्णय को प्रभावित किया हो ऐसा मुझे नहीं लगता, लेकिन सर्वे आपको एक मोटी-मोटा आइडिया तो देता है.
ये बात बार-बार आ रही है कि चुनावी विकल्प का इनीशिएटिव अन्ना का था…
इनीशिएटिव अन्ना का था,  लेकिन बाद में वे ही पीछे हट गए.
हम इसको कैसे देखें… 19 तारीख की बैठक के बाद आपकी इस संबंध में फिर से अन्ना से कोई बात हुई?
उसके बाद तो कोई बात नहीं हुई लेकिन उसके पहले मैं लगातार उनके संपर्क में था. लेकिन उनके निर्णय की वजह क्या रही मैं खुद नहीं समझ पा रहा हूं.
दोनो व्यक्ति मिलकर एक-दूसरे को संपूर्ण बनाते थे. अरविंद की संगठन और नेतृत्व क्षमता और अन्ना की भीड़ को खींच लाने की काबिलियत मिलकर दोनों को संपूर्णता प्रदान करती थी. उनके जाने से इस पर कितना असर पड़ा है? इस नुकसान को कैसे भरेंगे?
अन्नाजी के जाने से नुकसान तो हुआ ही है. इस पर कोई दो राय नहीं है.
कोई संभावना शेष बची है अन्ना के आपसे दुबारा जुड़ने की…
बिल्कुल. अन्ना एक देशभक्त व्यक्ति हैं. देश के लिए जो भी अच्छा काम होता है अन्नाजी उसका समर्थन जरूर करेंगे ऐसा मुझे विश्वास है.
हमारी राजनीतिक व्यवस्था में धनबल और बाहुबल का बहुत महत्व रहता है. उससे निपटने का कोई वैकल्पिक तरीका है आपके पास या फिर उन्हीं रास्तों पर चल पड़ेंगे ?
नहीं. उसी को तो बदलने के लिए हम राजनीति में जा रहे हैं. आज की जो राजनीति है वही तो सारी समस्या की जड़ है. आज हमारे सरकारी स्कूल ठीक से काम नहीं कर रहे हैं, सरकारी अस्पतालों में दवाइयां नहीं मिलतीं, सिर्फ इसलिए क्योंकि हमारी राजनीति खराब है. बिजली, पानी, सड़कें ये सब इस अक्षम राजनीति की वजह से ही आज तक खराब बनी हुई हैं. यह तो भ्रष्टाचार का अड्डा बन चुकी है. पैसे और बाहुबल का जोर है. उसी को बदलने के लिए हम राजनीति में जा रहे हैं.
तो तरीका क्या है? क्योंकि पैसे के बिना तो इतने बड़े देश में आप राजनीति नहीं कर पाएंगे, यह सच्चाई है.
इधर बीच मुझसे कई ऐसे लोग मिले हैं जिन्होंने कम से कम पैसे में चुनाव जीतकर दिखाया है. उन लोगों से हम उनके तरीकों पर विचार करेंगे और उन्हें अपनाने की कोशिश करेंगे.

( जैसा कि तहलका को बताया, तहलका पत्रिका का लिंक : http://tehelkahindi.com/%e0%a4%b0%e0%a4%be%e0%a4%9c%e0%a4%a8%e0%a5%80%e0%a4%a4%e0%a4%bf%e0%a4%95-%e0%a4%aa%e0%a4%be%e0%a4%b0%e0%a5%8d%e0%a4%9f%e0%a5%80-%e0%a4%ac%e0%a4%a8%e0%a4%be%e0%a4%a8%e0%a5%87-%e0%a4%95/ )

AAP के साथ 3 साल

28 जनवरी 2011 को सुबह TOI में एक खबर देखी थी; कुछ लोग 30 जनवरी को लोकपाल नाम की संस्था की माँग करेंगे देश भर में । आंदोलन तो मेरा सबसे कमजोर पक्ष है तो सोचा चलेंगे हम भी पर अजमेर कुछ नहीं हुआ ( या हुआ तो मुझे कोई खबर नहीं मिली ) तो 31 को अख़बार में खबर देख के ही खुश हुये कि अरविन्द केजरीवाल, प्रशांत भूषण, मनीष सिसोदिया, किरण बेदी, श्री श्री रविशंकर, मो. मदनी और आर्कबिशप ने लोकपाल बिल के लिये दिल्ली में मार्च का नेतृत्व किया । इनमें से रविशंकर का नाम ही सुना हुआ था बाकि मेरे लिए अनजान थे । फिर अख़बार में कहीं इनकी संस्था का नाम दिखा India Against Corruption तो झट से गूगल किया तो इसका fb पेज चेक किया तो वहाँ से पता चला कि जनलोकपाल आखिर क्या बला है और कौन हैं ये लोग । उसके बाद दिल्ली, जयपुर और अजमेर में हुये सभी अनसन, प्रदर्शन, मार्च  में सक्रिय रूप से भाग लिया ।
फिर जो सफर शुरू हुआ उसके बाद आज 5 साल हो गये हैं जिनमें तबके एक्टिविस्ट आज के सफल पॉलिटिशियन बन गये हैं और आज 3 साल के बाद दिल्ली में सरकार में हैं और पंजाब से 4 MP हैं ...और आगे भी यूँ ही बढ़ते चलेंगे ...( पूरी कहानी कभी और जब टाइम मिला तब लिखेंगे )

Sunday 22 November 2015

तब तुम क्या करोगे ? - ओमप्रकाश वाल्मीकि

यदि तुम्हें ,
धकेलकर गांव से बाहर कर दिया जाय
पानी तक न लेने दिया जाय कुएं से
दुत्कारा फटकारा जाय चिल-चिलाती दोपहर में
कहा जाय तोड़ने को पत्थर
काम के बदले
दिया जाय खाने को जूठन
तब तुम क्या करोगे ?
**
यदि तुम्हें ,
मरे जानवर को खींचकर
ले जाने के लिए कहा जाय
और
कहा जाय ढोने को
पूरे परिवार का मैला
पहनने को दी जाय उतरन
तब तुम क्या करोगे ?
**
यदि तुम्हें ,
पुस्तकों से दूर रखा जाय
जाने नहीं दिया जाय
विद्या मंदिर की चौखट तक
ढिबरी की मंद रोशनी में
काली पुती दीवारों पर
ईसा की तरह टांग दिया जाय
तब तुम क्या करोगे ?
**
यदि तुम्हें ,
रहने को दिया जाय
फूस का कच्चा घर
वक्त-बे-वक्त फूंक कर जिसे
स्वाहा कर दिया जाय
बर्षा की रातों में
घुटने-घुटने पानी में
सोने को कहा जाय
तब तुम क्या करोगे ?
**
यदि तुम्हें ,
नदी के तेज बहाव में
उल्टा बहना पड़े
दर्द का दरवाजा खोलकर
भूख से जूझना पड़े
भेजना पड़े नई नवेली दुल्हन को
पहली रात ठाकुर की हवेली
तब तुम क्या करोगे ?
**
यदि तुम्हें ,
अपने ही देश में नकार दिया जाय
मानकर बंधुआ
छीन लिए जायं अधिकार सभी
जला दी जाय समूची सभ्यता तुम्हारी
नोच-नोच कर
फेंक दिए जाएं
गौरव में इतिहास के पृष्ठ तुम्हारे
तब तुम क्या करोगे ?
**
यदि तुम्हें ,
वोट डालने से रोका जाय
कर दिया जाय लहू-लुहान
पीट-पीट कर लोकतंत्र के नाम पर
याद दिलाया जाय जाति का ओछापन
दुर्गन्ध भरा हो जीवन
हाथ में पड़ गये हों छाले
फिर भी कहा जाय
खोदो नदी नाले
तब तुम क्या करोगे ?
**
यदि तुम्हें ,
सरे आम बेइज्जत किया जाय
छीन ली जाय संपत्ति तुम्हारी
धर्म के नाम पर
कहा जाय बनने को देवदासी
तुम्हारी स्त्रियों को
कराई जाय उनसे वेश्यावृत्ति
तब तुम क्या करोगे ?
**
साफ सुथरा रंग तुम्हारा
झुलस कर सांवला पड़ जायेगा
खो जायेगा आंखों का सलोनापन
तब तुम कागज पर
नहीं लिख पाओगे
सत्यम , शिवम, सुन्दरम!
देवी-देवताओं के वंशज तुम
हो जाओगे लूले लंगड़े और अपाहिज
जो जीना पड़ जाय युगों-युगों तक
मेरी तरह ?
तब तुम क्या करोगे ?

~
~
तब तुम क्या करोगे / ओमप्रकाश वाल्मीकि

Thursday 19 November 2015

" मैं हैरान हूँ "

फेसबुक पर RPS Harit की पोस्ट है  - " मैं हैरान हूँ "

मैं हैरान हूँ
यह सोच कर
किसी औरत ने उठाई नहीं ऊँगली
तुलसी पर
जिसने कहा ---
“ढोल गवांर शूद्र पशु नारी
ये सब ताड़ना के अधिकारी!”
.
मैं हैरान हूँ
किसी औरत ने
जलाई नहीं
‘मनुस्मृति’
पहनाई जिसने
उन्हें, गुलामी की बेड़ियाँ.
.
मैं हैरान हूँ
किसी औरत ने
धिक्कारा नहीं उस ‘राम’ को
जिसने गर्भवती ‘पत्नी’ को
अग्नि-परीक्षा के बाद भी
निकाल दिया घर से
धक्के मारकर.
.
मैं हैरान हूँ
किसी औरत ने
नंगा किया नहीं उस ‘कृष्ण’ को
चुराता था जो नहाती हुई
बालाओं के वस्त्र
‘योगेश्वर’ कहलाकर भी
मानता था रंगरलियाँ
सरेआम.
.
मैं हैरान हूँ
किसी औरत ने
बधिया किया नहीं उस इन्द्र को
जिसने किया था अपनी ही
गुरुपत्नी के साथ
बलात्कार.
.
मैं हैरान हूँ
किसी औरत ने
भेजी नहीं लानत
उन सबको, जिन्होंने
औरत को समझ कर एक ‘वस्तु’
लगा दिया उसे जुए के दाव पर
होता रहा जहाँ ‘नपुंसक योद्धओं’ के बीच
समूची औरत जात का
चीरहरण.
.
मैं हैरान हूँ
यह सोचकर
किसी औरत ने किया नहीं
संयोगिता-अम्बालिका के दिन-दहाड़े
अपहरण का विरोध
आज तक.
.
और .......
मैं हैरान हूँ
इतना कुछ होने के बाद भी
क्यूँ अपना ‘श्रद्धेय’ मानकर
पूजती हैं मेरी माँ-बहनें
उन्हें देवता और
भगवान बनाकर.
.
मैं हैरान हूँ!
.
शर्म से पानी-पानी हो जाता हूँ
उनकी चुप्पी देखकर.
इसे उनकी
सहनशीलता कहूँ, या
अंधश्रद्धा
या, फिर
मानसिक गुलामी की
पराकाष्ठा ?


( इस पोस्ट का उद्देश्य यही है कि शोषित अपनी आवाज खुद उठाये, किराये के कमांडर से जंग नही जीती जा सकती तो लड़ो, जीतने के लिये )

डॉ कलाम को श्रद्धांजलि

डॉ. एपीजे अब्दुल कलाम (Avul Pakir Jainulabdeen Abdul Kalam ) का जन्म 15 October 1931 को तमिलनाडु के Rameswaram में हुआ । इन्होंने 1960 ...