Thursday 1 October 2015

मज़हब ही सिखाता है आपस में बैर रखना

दिल्ली से लगते दादरी में गाय के नाम फिर एक इंसान की जान चली गयी । ये कोई इस देश में पहली बार नहीं हुआ न ही आखिरी बार । सवाल यहाँ गाय का नहीं है, सवाल यहाँ सूअर का नहीं है, सवाल यहाँ रंजिस का नहीं है, सवाल यहाँ आस्था का भी नहीं है और इंसानियत का हो ही नहीं सकता क्योंकि सवाल यहाँ नफरत का है । जैसा कि मेरे FB मित्र Zaheen Saifi ने सटीक लिखा है

" सवाल गाय में आस्था का होता तो अल कबीर जैसे मीट प्लांट में आग लगाते, सवाल आस्था का होता तो ऋषि कपूर जैसो के घर मे घुसकर तोड़ फोड़ करते, सवाल आस्था का होता तो गौमांस खाने वाला किरण रिजिजू जैसा केन्द्रीय मंत्री तुम्हारी अपनी सरकार मे अब तक ना होता, सवाल आस्था का होता तो एक कथित हिंदूवादी सरकार देश को बीफ एक्सपोर्ट में नम्बर वन ना बनाती, सवाल आस्था का होता तो गाय सड़क पर कूड़ा कचरा खाती ना फिरती। पर यहा सवाल आस्था का नही नफरत का था। एक मुस्लिम से नफरत का ।
‪#‎international_shame "


एक सवाल और था  कि  नफरत किस आधार पर की जाये ? आधार बनाया गया गाय का मांस । क्योंकि मृतक का एक बेटा एयरफोर्स में है, इसलिए देशद्रोह का आरोप तो लगा नहीं सकते थे, जैसा कि आज तक लगाते आये हैं । और देश सेवा का जवाब हम ही क्यों दें, उनसे क्यों नहीं माँगा जाता जो आज तक नफरत ही फैलाते आये हैं और कभी भी अपने पेट के सिवाय मानवता या देश सेवा की तरफ ध्यान नहीं गया । क्यों हमें बेगुनाही उन लोगों के सामने साबित करते हैं ? आखिर क्यों ? और कब तक ?

 एक मन्दिर के लाउडस्पीकर से पण्डे द्वारा बोला जाता है कि " इखलाक खाँ नाम के आदमी ने घर में गाय का मांस छुपाकर रखा है, उसने हमारी पवित्र गाय माता की हत्या की है, उसे इसकी सज़ा सभी हिंदुभाई मिलकर दें " और वो भीड़, जो कई सालों से इसी मौके के ताक़ में थी कि कब दंगा किया जाये और कब हम मुस्लिमों को मारे । और वो मौका पण्डे ( जो खुद एक दंगाई है ) ने आज उन दंगाइयों को दे दिया था । बस फिर क्या था, पूरा झुण्ड का झुण्ड उस बाप बेटे पर टूट पड़े, उस आदमी को सिलाई की मशीन और ईंटों की दे देकर मारा गया, घसीट घसीट कर मारा गया ।

वहाँ किस कदर लोगों के मन में नफरत थी उसका एक नमूना NDTV के पत्रकार रवीश कुमार के उस ब्लॉग में मिलता है, जो उन्होंने वहाँ से लौटकर लिखा था । बकौल रवीश
" मेरे साथ सेल्फी खिंचाने आया प्रशांत जल्दी ही तैश में आ गया। ख़ूबसूरत नौजवान और पेशे से इंजीनियर। प्रशांत ने छूटते ही कहा कि किसी को किसी की भावना से खेलने का हक नहीं है। हमारे सहयोगी रवीश रंजन ने टोकते हुए कहा कि मां बाप से तो लोग ठीक से बात नहीं करते और भावना के सवाल पर किसी को मार देते हैं। अच्छा लड़का लगा प्रशांत पर लगा कि उसे इस मौत पर कोई अफ़सोस नहीं है। उल्टा कहने लगा कि जब बंटवारा हो गया था कि हिन्दू यहां रहेंगे और मुस्लिम पाकिस्तान में तो गांधी और नेहरू ने मुसलमानों को भारत में क्यों रोका। इस बात से मैं सहम गया। ये वो बात है जिससे सांप्रदायिकता की कड़ाही में छौंक पड़ती है।
प्रशांत के साथ खूब गरमा गरम बहस हुई लेकिन मैं हार गया। हम जैसे लोग लगातार हार रहे हैं। प्रशांत को मैं नहीं समझा पाया। यही गुज़ारिश कर लौट आया कि एक बार अपने विचारों पर दोबारा सोचना। थोड़ी और किताबें पढ़ लो लेकिन वो निश्चित सा लगा कि जो जानता है वही सही है। वही अंतिम है। आख़िर प्रशांत को किसने ये सब बातें बताईं होंगी? क्या सोमवार रात की भीड़ से बहुत पहले इन नौजवानों के बीच कोई और आया होगा? इतिहास की आधू अधूरी किताबें और बातें लेकर? वो कौन लोग हैं जो प्रशांत जैसे नौजवानों को ऐसे लोगों के बहकावे में आने के लिए अकेला छोड़ गए? खुद किसी विदेशी विश्वविद्यालय में भारत के इतिहास पर अपनी फटीचर पीएचडी जमा करने और वाहवाही लूटने चले गए ।"


जो लोग इस देश में गायों को लेकर इतना रोना - धोना मचाये हुये हैं क्या उन लोगों ने कभी गाय पाली भी है ? पालते तो पता चलता कि इतनी गायें कूड़ा - करकट क्यों खा रही है । क्यों कट रही है । उनके महिमा मंडन अनुसार गाय, गौमूत्र, गोबर से ही इस देश का भला होता तो मजदूर किसान आत्महत्या नहीं करते दलालों ... डूब मरो ... अगली क्रांति तुम्हारे मंदिर - मस्जिदों के खिलाफ होगी ।

ये लेख गायों को काटने के पक्ष में नहीं लिख रहा हूँ बल्कि इसलिये लिख रहा हूँ क्योंकि ये प्रवृति अब सभी धर्मों में फ़ैल चुकी है,  दक्षिण एशिया ऐसे धार्मिक उन्मादों का अड्डा बना हुआ है । उदाहरण के लिये अफगानिस्तान में कुरान के पन्ने फाड़ने के नाम पर इसी तरह फरखुन्दा को पीट-पीटकर मारने और फिर जीवित जला देने का मामला हो या बांग्लादेश में कई ब्लॉगरों की हत्या का मामला हो या भारत में दाभोलकर, पंसारे, कुलबर्गी की निर्मम हत्या का मामला हो; धर्म ने हमारे साथ ये दिक्कत पैदा कर दी है कि हम जिंदगी जीना भूल गये हैं और बिगाड़ना सीख गये हैं । धर्म इंसानियत का दोस्त कम और दुश्मन ज्यादा बन गया है ।




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