Friday 25 January 2013

NDA - UPA गठजोड़ बनाम AAP

कितनी असमानता है NDA - UPA गठजोड़ और
AAP में...
1 NDA - UPA :- एक जोड़ी ऊपर ऊपर
विरोधी दिखते हैं.. जनता को दिखाने के लिए ...
अन्दर अन्दर मोटा माल और छोटा माल पर
समझौता करते हैं ...
AAP :- राजनीती से मलाई और माल ही ख़त्म
करने आ रही है. ..
2. NDA : सांप्रदायिक विरोध की राजनीती -
UPA : सांप्रदायिक तुस्टीकरण की राजनीती
AAP : सांप्रदायिक सदभाव वाला, सर्व धर्म
समभाव वाला और सभी जाति-संप्रदाय के
गरीबों का शुभ चिन्तक हितैसी
3. NDA - UPA :- जनता को जाती-संप्रदाय
के आधार पर बाँट कर वोट बैंक की तरह
इस्तेमाल करने वाली.
AAP :- जनता को एकजूट कर राष्ट्र के मालिक
का दर्ज़ा दिलाने वाली.
4. NDA - UPA :- स्वयं सेवक और सेवा दल
के नाम पर दल विशेष की गुलामी कराने वाली..
चाहे उन दलों के अध्यक्ष भी भ्रष्टाचार में
लिप्त क्यों न हों..
AAP :- जनता को एकजूट कर राष्ट्र हित के
मुद्दों के लिए आह्वान करती... सत्ता में
जनता की भागीदारी बढाने के लिए काम करती...
किसी व्यक्ति के लिए नहीं देश हित के मुद्दों के
लिए समर्थन जुटाती.
5. NDA - UPA :- सांप्रदायिक हिंसा और दंगे
कराकर सत्ता पाती...
AAP :- सत्ता मिले या न मिले सांप्रदायिक
विद्वेष न फैलाकर सदभाव के लिए ही काम
करती.
6. NDA - UPA :- आतंरिक विफलता और
भ्रष्टाचार से ध्यान हटाने के लिए एक
पाकिस्तान तो दूसरी मुसलमान को दोषी ठहराती.
AAP :- पाकिस्तानी घुसपैठियों से निपटने में
सेना को सक्षम मानती... देश के अन्दर बैठे देश
के लूटेरों के लिए भी जेल की व्यवस्था बनाती. .
7. NDA - UPA :- लाल बत्ती और चकाचौध
में रहने वाली
AAP :- बिना लाल बत्ती के आम जनता की तरह
रहने वाली
8. NDA - UPA :- सुरक्षा गार्डों से
घिरी रहने वाली ... आम जनता से कटी हुई.
AAP :- आम जनता के साथ .. आम
जनता की तरह रहने वाली.
9. NDA - UPA :- आम जनता के पैसों से
भारी वेतन और सुविधा का राजाओं की तरह
उपभोग करने वाली..
AAP :- न्यूनतम वेतन और न्यूनतम सुविधा लेने
के वादे के साथ आने की तैयारी.
10. NDA - UPA :- चुनाव में टिकट बेचने
वाली... पैसा देने वाले या भाई
भतीजों को उमीदवार बनाकर जनता पर जबरन
थोपने वाली.. जनता को अंधों में काना राजा चुनने
को मजबूर करने वाली.
AAP :- उमीदवारों के चयन में भी जनता की राय
और भागीदारी सुनिश्चित कराने वाली.
11. NDA - UPA :- अपराधियों ,
भ्रष्टाचारियों और व्यभिचारियों को भी टिकट
देने वाली.
AAP :- ऐसे लोगों को टिकट नहीं देगी .
12. NDA - UPA :- भ्रष्टाचार के स्पष्ट
प्रमाण मिलने पर भी नेता पार्टी के पदाधिकारी.
AAP :- भ्रष्टाचार , व्यभिचार, अत्याचार
आदि प्रमाणित होने पर पार्टी से निष्कासन
निश्चित.
13. NDA - UPA :- एक ही परिवार के कई
लोग विधायक - सांसद.
AAP :- एक परिवार के एक से अधिक लोग
विधायक- सांसद नहीं होंगे.
14. NDA - UPA :-
हजारों करोड़ों का चंदा गुप्त और काला धन
का हिस्सा.
AAP :- सभी चंदे पारदर्शी और सार्वजानिक.
15. NDA - UPA :- भ्रष्टों की जमात होने के
कारण जनलोकपाल और जनलोकायुक्त को लाने
और बनाने से डरते.
AAP :- जनलोकपाल और जनलोकायुक्त को लाने
और उनके अन्दर खुद को भी रखने को हर समय
तत्पर.
16. NDA - UPA :- राईट टू रिकाल, राईट टू
रिजेक्ट, राईट टू सेलेक्ट & एलेक्ट बोथ
जैसी व्यवस्था लाने से कोसो दूर भागती.
AAP :- राईट टू रिकाल, राईट टू रिजेक्ट, राईट टू
सेलेक्ट & एलेक्ट बोथ जैसी व्यवस्था लाने के
लिए ही अस्तित्व में आई.
17. NDA - UPA :- लूट का धंधा चलाने के
लिए जनप्रतिनिधियों का अधिकार छीन कर
ग्राम सभा को सामूहिक अधिकार देने से
भागती. .
AAP :- ग्राम सभा को अधिकार दिला कर
सत्ता में जनता की भागीदारी सुनिश्चित कराती.
18. NDA - UPA :- कानून बनाने में
जनता की राय मांगती है.. पर जनता की राय
मानती नहीं और बताती भी नहीं की जनता ने
क्या राय दिया है.
AAP :- कानून और नियम बनाने जनता की राय
लेती है .. सारा कुछ पारदर्शी रखते हुए
जनता की राय सबके सामने रखती है . और राय
के अनुरूप संसोधन भी करती है.
19. NDA - UPA :- किसानों के पैदवार पर
हुए खर्च से भी कम मुल्य मनमाने ढंग से
लगाती हैं जिससे किसान आत्महत्या के लिए
मजबूर हो जाते हैं.
AAP :- किसानों के पैदवार का मूल्य किसानों के
लागत मुल्य के अनुसार किसानों की मदद और
राय से तय करेगी.
20. NDA - UPA :- निजी कंपनियों को लाभ
पहुँचाकर रिश्वत खाने के लिए
सरकारी शिक्षा और स्वास्थ्य
सुविधा की अनदेखी करती. गरीब
जनता अच्छी शिक्षा और स्वास्थ्य सुविधा से
वंचित रहती.
AAP :- सरकारी शिक्षा और स्वास्थ्य
सुविधाओं को निजी सुविधाओं की तरह बेहतर
बनाकर गरीबों का जीवन स्त्तर सुधारेगी.
ॐ . ੴ . ﻪّٰﻠﻟﺍ . † …….
Om.Onkar. Allâh.God…..
Jai Hind! Jai Jagat (Universe)!
- Ghulam Kundanam.
Volunteer, IAC & AAP.
9931018391.

आजादी ????

आप से निवेदन है की 1 दिन बाद 26 जनवरी है | सेना की परेड में लड़ाकू विमान,टैंक़, मिसाईल देखकर ये मत भूल जाना कि इस देश मे आजादी के 66 साल बाद आज भी इस देश में 84 करोड़ 30 लाख लोगो के पास एक दिन में
खर्च करने को 20 रुपये नहीं है ,
मत भूल जाना world hunger report जो कहती है कि भारत मे हर 1 मिनट में 13 लोग भूख से मर जाते है और शाम होते तक लगभग 10000 हजार लोग भूख से ही मर जाते है ,
मत भूल जाना इस देश में 15 करोड़ लोगो के पास आज भी तन ढकने को 2 मीटर कपड़ा नहीं है ,
मत भूल जाना आजाद होने के 66 साल बाद। भी देश की सरकार आम आदमी की जरुर की चीजे उसे नहीं मुहिया करवा पाई ,
मत भूल जाना की कैसे आज भी इस देश का अन्नदाता (किसान ) आत्महत्या करता है,
मत भूल जाना की आज भी देश के राज नेता उन शहीदों को उनका हक़ भी नहीं दिला सके जिन शहीदों ने इस देश की अखंडता बनाये रखा 65, 71, 99 के लड़ाई में अपनी जान हँसते-हँसते दे दी,
मत भूल जाना की आज भी देश उस मजहब की चिंगारी की आग पर बैठा है कि न जाने कब इस देश के फिर से दो टुकड़े न कर दे,
मत भूल जाना की कैसे बलात्कार पीडिता को इस देश का कानून जीतेजी तो छोडिये मरने के बाद भी इंसाफ नहीं दिला सकता क्या उमीद की जाए इस देश के कानून और राजनेताओ से ।

क्या हमारे देश के लाखों शहीदों ने इसी भारत की कल्पना की थी जो आज हमारे सामने है राजमार्ग से निचे उतर कर 5-7 किलोमीटर अन्दर वो गाव देखिये तो भारत आपको वही खड़ा दिखाई देगा जहा पर भगत सिंह या चद्रशेखर छोड़ कर गए थे |
आपको ये बाते बातने का मकसद यही है की 26 जनवरी को मीडिया आपको सेना के टैंक, मिसाईल, विकास की खबरे
दिखायेगा ताकि इसका असर आगामी चुनाव में पड़े |
फिर भी यदि शुभकामनाये देनी ही है तो में उन काले अंग्रेजो को प्रजातंत्र की बधाई दुगा जिनके लिए ये लुटतंत्र की काली आजादी है |

Wednesday 23 January 2013

स्वराज की अवधारणा: शंका एवं समाधान - ठाकुरदास बंग

गाँधीजी ने स्वराज के वर्षो पूर्व 1909
में ही हिन्द स्वराज जैसी छोटी-
सी किताब लिखकर अपनी कल्पना के
स्वराज का चित्र खींचा था। स्वराज
प्राप्ति के लिए उन्होंने नैतिक साधनों
का इस्तेमाल का व्यापक आंदोलन
किया। लेकिन गाँधीजी के हत्या से यह
संभव नहीं हो पाया।
पाश्चात्य लोकतांत्रिक देशों में चुनाव के
साथ-साथ प्रबल लोकमत-ध्र्मसंस्था,
विद्यापीठ, श्रमिक संगठन, प्रेस
इत्यादि शक्तियों द्वारा शासन
की मनमानी पर चतुर्विध् अंकुश लगाने
का काम होता है। भारत की लोकशाही में
इसका अपेक्षाकृत अभाव है। चुनाव के
लिए राजनीतिक दलों द्वारा लगने
वाला खर्च सरकार द्वारा किया जाना,
सानुपातित प्रतिनिधित्व (प्रपोर्शनल
रिप्रेजेंटेशन), प्रतिनिधि का वापस बुलाने
का अधिकार, मतदाता को अभिक्रम
का अधिकार, आममत आदि अनेक
माध्यमों से कुछ देशों में
लोकशाही की मनमानी पर अंकुश रहता है।
लोकतंत्र के दो प्रकार हैं।
पहला केन्द्रित प्रतिनिधिक लोकतंत्र।
यहां चुनाव में जीते हुए लोक
प्रतिनिधि शासन की सारी सत्ता निहित
होती है। उसे वापस
नहीं बुलाया जा सकता। दूसरा,
विकेन्द्रित सहभागी लोकतंत्र इसमें
ज्यादा से ज्यादा सत्ता नीचे की ईकाई
के पास होती है।
यानी ग्रामसभा नगरपालिका के पास
होती है। केन्द्र यानी संसद
या विधानसभा के हाथ में कम से कम
सत्ता रहती है। संपूर्ण विकेन्द्रित
लोकतंत्र तो संभव ही नहीं है
क्योंकि सुरक्षा, विदेश नीति, दूसरे
देशों के साथ कार्य व्यवहार,अनेक नीचे
की ईकाईयों के कार्यों का समन्वय, देश
में एक प्रकार की मुद्रा का प्रचलन
इत्यादि विषयों में एक गांव (या नगर)
क्या कर सकेगा? एकसूत्रता साघने और
समन्वय बिठाने का कार्य भी केन्द्र के
पास ही स्वाभाविक रूप में रहेगा। लेकिन
बचे हुए सारे विषय और उनके कारोबार
का अधिकार प्राथमिक ईकाई के पास
रहने चाहिए। इससे काम ठीक होगा,
जल्दी होगा, मितव्ययितापूर्ण और
भ्रष्टाचार से मुक्त होगा और सामान्य
व्यक्ति की पहुंच के भीतर होगा। भारत
के लोगों को इसका अनुभव प्रतिदिन
होता ही है।

शंका-समाधान

1. शंका: इससे केन्द्र कमजोर होगा।
केन्द्र के अधिकार क्षेत्र में विषय कम
करने से केन्द्र कमजोर होगा,
ऐसी शंका अनेक लोग प्रकट करते हैं।

समाधान: परिणाम
ऐसा नहीं होगा क्योंकि लोगों को अपनी
शासन व्यवस्था स्वयं करने
को अधिकाधिक स्वतंत्रता दी जाए तो वे
राष्ट्र के रूप में कहीं अधिक एकताबद्ध
और शक्तिशाली होंगे। भारत में रहने वाले
भिन्न-भिन्न समुदाय अधिक प्रेम से एक
साथ रह सकेंगे। अपने विषय अपने हाथ
में केन्द्रित करने वाले बलवान राष्ट्र
का बाहरी रूप ही बलवान होने का भास
होता है। ऐसे केन्द्र को अंदर से अनेक
तरह के दबावों और तनावों के बीच काम
करना होता है। उसे विघटित होकर बिखर
जाने का खतरा बना रहता है। इस तरह
का बलवान केन्द्र लोकतंत्र से धीरे-धीरे
दूर और अधिकाधिक सर्व
सत्तावादी होता जा रहा है।
विकेन्द्रीकरण से केन्द्र निर्बल
हो जाएगा, यह तर्क गलत है। निर्वाचित
सत्ता हर स्तर पर कार्य करती है
जिसके लिए वह सक्षम है। जो विषय
उसकी क्षमता से बाहर हैं उन्हें ही ऊपर
के स्तर पर सौंपे जाते हैं। इसलिए यह
क्षमता का प्रश्न बन जाता है।
विषयों की संख्या किसी इकाई के पास
ज्यादा हों तो वह बलवान होती है,
ऐसा नहीं है। ऊपरी स्तर पर भारी-
भरकम और फैला हुआ केन्द्र, जो हर
विषय पर अपनी टांग अड़ाता हो, देखने में
भले ही मजबूत मालुम पड़े लेकिन वास्तव
में होगा कमजोर, खोखला, मंदगति और
निकम्मा। राष्ट्रीय एकता और
शक्ति इस बात पर निर्भर नहीं है
कि केन्द्रीय सरकार के अधिकार क्षेत्र
के विषयों की सूची कितनी बड़ी है,
बल्कि भावनात्मक एकता, जनता के
समान अनुभव, आकांक्षाएं, सहिष्णु और
सबसे अधिक राष्ट्रीय नेताओं
की विशाल हृदयता आदि स्थायी तत्वों में
निहित है।

2. शंका: पिछडे़ गांव के
नागरिकों को सत्ता देना गलत है।
अपना शासन स्वयं करने
की योग्यता उनमें नहीं है।

समाधान: ऐसा इसलिए हुआ
क्योंकि सदियों तक ग्रामीण
जनता को कुछ विषयों में मजबूरन
पिछड़ी हालत में रखा गया है।
तथापि शहर के चुने हुए तबके के लोगों से
किसी भी अर्थ में
नैतिकता या बुद्धि की दृष्टि से वे पिछड़े
हुए नहीं हैं। यदि इसे मान भी लिया जाए
तो भी इस इस कारण उन्हें स्वशासन के
अधिकार से वंचित रखना गलत,
अलोकतांत्रित और धृष्टतापूर्ण होगा।
गुलाम भारत को अधिकार देने के बारे में
अंग्रेज यही तर्क देते थे। आखिर
सुराज्य, स्वराज का विकल्प
नहीं हो सकता। तथाकथित
पिछड़ी देहाती जनता पलटकर आगे बढ़े
हुए शहरी शिक्षितों से यह सवाल
नहीं पूछ सकती कि क्या वे राष्ट्र
का शासन सफलतापूर्वक कर सके हैं?
अवश्य की विकेन्द्रीकरण
द्वारा सत्ता मिलने पर गलतियां होंगी।
लेकिन, पहले तो उत्तरदायित्व
को निभाने के लिए स्वशासन
की योग्यता और आवश्यक
क्षमता प्राप्त की जा सकती है। फिर
पिछडे़पन का इलाज जनता को उसके
सार्वभौम अधिकारों से वंचित
रखना नहीं, बल्कि जितना शीघ्र हो सके
उसे शिक्षित और जागृत करना है।

3. शंका: ऐसा होगा तो गांव पीछे
जाएंगे।

समाधान: विकेन्द्रीकरण के कारण
गांवों में परंपरागत सुविध-संपन्न एवं
बलवान वर्ग अपना प्रभुत्व स्थापित
करेगा, तो गांव फिर से पीछे जाएंगे।
लेकिन इसका इलाज जनता पर
अविश्वास करना और लोकतंत्र के दायरे
से आगे बढ़ने से रोकना नहीं है।
बल्कि स्वयं विकेन्द्रीकरण के ढांचे में
ऐसी सुरक्षात्मक व्यवस्था कर
दी जाए, जिससे नेतृत्व करने वालों के
लिए समाज के पिछड़े और निर्बल
लोगों को ऊपर उठाना अनिवार्य बना दे।

4. शंका: कार्य असंभव है।
इनता बड़ा की लगभग असंभव-सा कार्य
कैसे हो सकेगा।

समाधान: इसका उत्तर यह है कि हर
असंभव-सा कार्य करने से पहले असंभव
ही लगता है। प्रारंभ करने के बाद वह
हो जाता है, उसकी इतिहास
गवाही देता है। शस्त्राविहीन राष्ट्र ने
शांतिपूर्ण उपायों द्वारा स्वतंत्रता कैसे
प्राप्त की? देशी राज्यों को राष्ट्र के
रूप में कैसे समाहित कर लिया गया? चांद
पर पहुंचने का असंभव कार्य मानव ने
किस प्रकार कर दिखाया? इसलिए
निराश होने की जरूरत नहीं है,
बल्कि प्रयत्नों की पराकाष्ठा करने
की आवश्यकता है।

5. शंका: बढ़ती हुई बेकारी, आर्थिक
विषमता, वैश्वीकरण, प्रदूषण और
सांप्रदायिकता इत्यादि चुनौतियों का
जवाब कौन देगा? ऐसा आज के नेता और
सरकार कैसे करेंगे?

समाधान: इसकी राह हम देखते रहे
तो परिवर्तन हो चुका। इन्हीं राजनीतिक
और आर्थिक स्वार्थों ने तो इन
चुनौतियों को पैदा करने की आग लगाई
है। इनमें से कुछ लोग की अपवादस्वरूप
निकलेंगे, जिन्हें खोना नहीं है। लेकिन ऐसे
सारे समूहों से यह
अपेक्षा करना निरा भोलापन होगा। इस
कार्य की पहल स्वयं ही करनी होगी।
डॉक्टर ही दवाई पी ले तो रोगी स्वस्थ
नहीं होगा। इसलिए परिवर्तन की पहल
स्वयं का करनी होगी।
विनोबा हमेशा कहते थे- आज संसार में
देइज्म चलता है। यानि उपाय सरकार करे
या अन्य कोई करे-हम नहीं। सर्वोदय
का प्रतिपादन है कि हम इसे करेंगे। हम
वीइज्म के उपासक बनें।

साभार: लोक-स्वराज

क्यों, क्या और कैसे?

जे.पी. और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ

[ सवालों के लिखित उत्तर जयप्रकाश नारायण
ने 'सामयिक वार्ता' के लिए सितम्बर १९७७ के
पहले सप्ताह में दिये ।निम्नलिखित सवाल-
जवाब का स्रोत - सामयिक वार्ता , १६
सितम्बर,१९७७ है ।]

प्रश्न : आपके आन्दोलन में अखिल भारतीय
विद्यार्थी परिषद और भारतीय मजदूर संघ ने
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और जनसंघ के साथ
भाग लिया ।जनता पार्टी में राष्ट्रीय
स्वयंसेवक संघ का राजनीतिक अंग अर्थात
जनसंघ तो शामिल हो गया है । लेकिन वह खुद
तथा अ.भा. विद्यार्थी परिषद और भारतीय
मजदूर संघ अपनी अलग हैसियत बनाये हुए हैं ।
ये जनता पार्टी के युवा , छात्र और मजदूर
आदि संगठनों में मिलने से इनकार कर रहे हैं ।
क्या आपको यह नहीं लगता है कि इससे
पार्टी की एकता की भावना कमजोर होती है ?
क्या आपके आन्दोलन में शामिल होनेवाले
लोगों को , जिन्होंने इमरजेंसी के वक्त बहुत
कष्ट सहे , एकता को सबसे ज्यादा महत्व
नहीं देना चाहिए ?

जे.पी : इससे निश्चय ही (एकता) कमजोर
होगी । मैं आशा करता हूँ कि राष्ट्रीय
स्वयंसेवक संघ , विद्यार्थी परिषद और
भारतीय मजदूर संघ जैसे संगठन ,
जनता पार्टी के जो विभिन्न संगठन बन रहे हैं ,
उनमें शामिल होंगे । अगर वे शामिल नहीं हुए
तो आगे फूट और झगड़े की बहुत
ज्यादा आशंका रहेगी ।

प्रश्न : क्या आप राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ
को विशुद्ध रूप से एक सांस्कृतिक संगठन के रूप
में देखते हैं ? यह सवाल हम इसलिए कर रहे हैं
कि आपने उसके बारे में एक समय इससे भिन्न
मत प्रकट किया था ।

जे.पी. : राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को विशुद्ध
रूप से एक सांस्कृतिक संगठन मानना मुश्किल
है।

प्रश्न : आपने बम्बई में २१-२२ मार्च १९७६
को एक अकेली संयुक्त पार्टी बनाने के उद्देश्य
से संगठन कांग्रेस , जनसंघ , भारतीय लोक
दल , सोशलिस्ट पार्टी के
प्रतिनिधियों को तथा कुछ व्यक्तियों की बैठक
बुलाई थी । इस बैठक में आपने जनसंघ के
प्रतिनिधि को काफी कड़ाई से पूछा था कि वे
जेल में क्या अलग शाखाएँ चलाते हैं ?
क्या आपकी अभी भी यही राय है ?

जे.पी. : मेरी अभी भी यही राय है ।

प्रश्न : ‘बिहारवासियों के नाम चिट्ठी में आपने
लिखा है ” मैंने(जयप्रकाशजी ने) राष्ट्रीय
स्वयंसेवक संघ को आन्दोलन की सर्वधर्म
समभावनावाली धारा में लाकर
साम्प्रदायिकता से मुक्त करने की कोशिश की है
।” आपने यह दावा भी किया है कि राष्ट्रीय
स्वयंसेवक संघ के लोग कुछ हद तक बदले भी हैं
।क्या आप यह मानते हैं कि राष्ट्रीय
स्वयंसेवक संघ ने हिन्दू-राष्ट्र के विचार
को त्याग दिया है ? आपकी और
गांधीजी की भारतीय
राष्ट्रीयता की अवधारणा राष्ट्रीय स्वयंसेवक
संघ की हिन्दू-राष्ट्र की अवधारणा से
बुनियादी रूप से भिन्न है ।अगर यह बात ठीक है
तो यह भिन्नता कैसी है ? अगर राष्ट्रीय
स्वयंसेवक संघ और उनके अन्य संगठन हिन्दू-
राष्ट्र के अपने विचार पर अटल रहते हैं
तो क्या इससे भारतीय राष्ट्र और देश
सामाजिक और आर्थिक
चुनौतियों का मुकाबला करने के लिए एक
हो पाएगा ?

जे.पी. : राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के नेताओं
और कार्यकर्ताओं से  अपने सम्पर्क के दौरान
मुझे निश्चय ही उनके दृष्टिकोण में परिवर्तन
नजर आया । उनमें अब अन्य समुदायों के
प्रति शत्रुता कि भावना नहीं है । लेकिन अपने
मन में वे अभी भी हिन्दू-राष्ट्र की अवधारणा में
विश्वास करते हैं ।वे यह कल्पना करते हैं
कि मुसलमान और ईसाई(जैसे अन्य समुदाय)
तो पहले से ही संगठित हैं जबकि हिन्दू बिखरे हुए
और असंगठित और इसलिए वे हिन्दुओं
को संगठित करना अपना मुख्य काम मानते हैं ।
रा.स्व. संघ के नेताओं के इस दृष्टिकोण में
परिवर्तन होना ही चाहिए । मैं
यही आशा करता हूँ कि वे हिन्दू-राष्ट्र के
विचार को त्याग देंगे और उसकी जगह भारतीय
राष्ट्र के विचार को अपनाएँगे । भारतीय राष्ट्र
का विचार सर्वधर्म समभाववाली अवधारणा है
और यह भारत में रहनेवाले
सभी समुदायों को अंगीकार करता है।अगर
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ अपने को भंग
नहीं करता और जनता पार्टी द्वारा गठित
युवा या सांस्कृतिक संगठनों में शामिल
नहीं होता तो उसे कम-से-कम सभी समुदायों के
लोगों ,मुसलमानों और ईसाइयों को अपने में
शामिल करना चाहिए। उसे अपने संचालन और
काम करने के तरीकों का लोकतंत्रीकरण
करना चाहिए और सभी जातियों और
समुदायों के लोगों , हरिजन ,मुसलमान और
ईसाई को अपने सर्वोच्च पदों पर नियुक्त करने
की पूरी कोशिश करनी चाहिए ।

{ in this photo jp (left) & morarji desai, jansangh (right) }

Friday 18 January 2013

गब्बर सिंह का चरित्र चित्रण

1. सादा जीवन, उच्च विचार: उसके जीने
का ढंग बड़ा सरल था. पुराने और मैले कपड़े,
बढ़ी हुई दाढ़ी, महीनों से जंग खाते दांत और
पहाड़ों पर खानाबदोश जीवन. जैसे मध्यकालीन
भारत का फकीर हो. जीवन में अपने लक्ष्य
की ओर इतना समर्पित कि ऐशो-आराम और
विलासिता के लिए एक पल की भी फुर्सत नहीं.
और विचारों में उत्कृष्टता के क्या कहने! 'जो डर
गया, समझो मर गया' जैसे संवादों से उसने
जीवन की क्षणभंगुरता पर प्रकाश डाला था.

2. दयालु प्रवृत्ति: ठाकुर ने उसे अपने हाथों से
पकड़ा था. इसलिए उसने ठाकुर के सिर्फ
हाथों को सज़ा दी. अगर वो चाहता तो गर्दन
भी काट सकता था. पर उसके ममतापूर्ण और
करुणामय ह्रदय ने उसे ऐसा करने से रोक दिया.

3. नृत्य-संगीत का शौकीन: 'महबूबा ओये
महबूबा' गीत केसमय उसके कलाकार ह्रदय
का परिचय मिलता है. अन्य डाकुओं की तरह
उसका ह्रदय शुष्क नहीं था. वह जीवन मेंनृत्य-
संगीत एवं कला के महत्त्व को समझता था.
बसन्ती को पकड़ने के बाद उसके मन
का नृत्यप्रेमी फिर से जाग उठा था. उसने
बसन्ती के अन्दर छुपी नर्तकी को एक पल में
पहचान लिया था. गौरतलब यह कि कला के
प्रति अपने प्रेम को अभिव्यक्त करने का वह
कोई अवसर नहीं छोड़ता था.

4. अनुशासनप्रिय नायक: जब कालिया और
उसके दोस्त अपने प्रोजेक्ट से नाकाम होकर लौटे
तो उसने कतई ढीलाई नहीं बरती. अनुशासन के
प्रति अपने अगाध समर्पण को दर्शाते हुए उसने
उन्हें तुरंत सज़ा दी.

5. हास्य-रस का प्रेमी: उसमें गज़ब का सेन्स
ऑफ ह्यूमर था. कालिया और उसके
दो दोस्तों को मारने से पहले उसने उन
तीनों को खूब हंसाया था. ताकि वो हंसते-हंसते
दुनिया को अलविदा कह सकें. वह आधुनिक युग
का 'लाफिंग बुद्धा' था.

6. नारी के प्रति सम्मान: बसन्ती जैसी सुन्दर
नारी का अपहरण करने के बाद उसने उससे
सिर्फ एक नृत्य का निवेदन किया. आज-कल
का खलनायक होता तो शायद कुछ और कर
चुकता.

7. भिक्षुक जीवन: उसने हिन्दू धर्म और
महात्मा बुद्ध द्वारा दिखाए गए भिक्षुक जीवन
के रास्ते को अपनाया था. रामपुर और अन्य
गाँवों से उसे जो भी सूखा-कच्चा अनाज
मिलता था, वो उसी से अपनी गुजर-बसर
करता था. सोना, चांदी, बिरयानी या चिकन
मलाई टिक्का की उसने कभी इच्छा ज़ाहिर
नहीं की.

8. सामाजिक कार्य: डकैती के पेशे के
अलावा वो छोटे बच्चों को सुलाने का भी काम
करता था. सैकड़ों माताएं उसका नाम
लेती थीं ताकि बच्चे बिना कलह किए सो जाएं.
सरकार ने उसपर 50,000 रुपयों का इनाम
घोषित कर रखा था. उस युग में 'कौन
बनेगा करोड़पति' ना होने के बावजूद
लोगों को रातों-रात अमीर बनाने का गब्बर
का यह सच्चा प्रयास था.

9. महानायकों का निर्माता: अगर गब्बर
नहीं होता तो जय और वीरू जैसे लुच्चे-लफंगे
छोटी-मोटी चोरियां करते हुए स्वर्ग सिधार जाते.
पर यह गब्बर के व्यक्तित्व का प्रताप
था कि उन लफंगों में भी महानायक बनने
की क्षमता जागी.

डॉ कलाम को श्रद्धांजलि

डॉ. एपीजे अब्दुल कलाम (Avul Pakir Jainulabdeen Abdul Kalam ) का जन्म 15 October 1931 को तमिलनाडु के Rameswaram में हुआ । इन्होंने 1960 ...