Tuesday 29 September 2015

सेक्स : अपराध या जरूरत

एक मित्र का FB पर विचार

" चिपचिपी गर्मी में पूरे परिवार की रोटीयां बनाकर , बरतन धो कर , फिर सबको दूध देकर बच्चों को सोने के लिये कहती और उनके लिये सुबह के स्कूल की तैयारी करती औरत जब बेड पर आकर गिरती है , और तब भी सोने से ज्यादा उसका ध्यान सुबह जल्दी उठकर फिर से उसी बदमजा बोरिंग रूटीन में जाने पर होता है , उसी औरत में से रात को सनीलियोनी तलाश करना अन्याय ही है "

इस कमेंट पर मेरा जवाब इस प्रकार था

" यदि आप प्रैक्टिकली सोचें तो यही हाल पुरुषों का है, जो सुबह निकलता है और शाम अँधेरे ढ़ले घर पहुँचता है, बॉस के ताने और ओवरटाइम काम के बोझ से अधमरा पति घर पहुँच के बच्चों की जिद को कल परसों पर टालता हुआ जब बेड पर गिरता है तो यही सोचता है कि कल बच्चों की जिद कैसे पूरी की जाये या माँ-बाबा को अस्पताल कब दिखाया जाये या बीवी को शॉपिंग कब करवायी जाये या काश ! उन फाइलों (काम) में कुछ कमी हो जाये या बॉस ताने न मारें । पूरा साल निकल जाता है पर वो परिवार के साथ घूमने के लिये एक सप्ताह कभी भी नहीं निकाल पाता है अब वो अपनी बीवी, जिसे हम सुख- दुःख का साथी या अर्धांगिनी या और न जाने क्या क्या कहते हैं, उसमें सनी लियॉन या कुछ और खोजता है तो क्या गलत करता है ? आखिर दैहिक संतुष्टि भी तो पति और पत्नी की एक-दूसरे के प्रति जिम्मेदारी होती है । यदि पति सनी लियॉन ढूंढता है तो पत्नी भी उसमें टॉम क्रूज या कोई और पोर्न स्टार ढूँढती ही है ।"



पर यहाँ मुख्य सवाल था सेक्स को लेकर, इसे लेकर कुछ सवाल हैं । जैसे -
आखिर क्यों हम लोग सेक्स को इतना महत्वपूर्ण मुद्दा बनाये हुये हैं ?
क्यों हम सेक्स को इतना घिनौना मानते हैं ?
क्यों इसे अपनी इज्जत से जोड़े हुये हैं ?
एक ऐसी क्रिया, जिससे एक नई पीढ़ी आकार लेती है, हमारी संख्या बढ़ाती है, को हमने इतना घृणित क्यों  मान लिया है ?
सेक्स, जो एक जरूरत है, उसपर हम इतना बवाल क्यों मचाये हुये हैं ?
जो बवाल मचा रहे हैं वो क्या बिना सेक्स के इस दूनिया में आये हैं ?
नहीं न ।
सब जानते हैं कि जो इस दुनिया में आया है, वो इसी क्रिया के होने से आया है ।

 सेक्स शरीर की जरूरत है, इससे ज्यादा कुछ नहीं । इसके लिये आपको एक साधारण सा उदाहरण देता हूँ -
एक किसान अपने पालतू जानवरों भैंस, गाय, बकरी आदि को खुद भैंसे, बैल, बकरे के पास ले जाता है क्योंकि अगली बार दुहना है तो बच्चे पैदा होना जरूरी है, और बच्चे तभी होंगे जब सेक्स होगा । तो वो किसान अपने जानवरों के सेक्स को तो खुद आगे चलकर पुरे गाँव में प्रमोट करता है, उसका जानवर जब बोलता है ( यानि पाले आना या सेक्स करना चाहता है ) तो वो सबको बताता है लेकिन दूसरा लड़का ( या लड़की ) उसकी लड़की (या लड़का ) के साथ ये काम करले तो मरने / मारने पर उतारू हो जाता है ।

एक बात पूछता हूँ आप लोगों से कि जब आपका शरीर  भूख, मल, मूत्र, पसीना आदि क्रियाएं करता है तो आप निःसंकोच कहीं भी ये सब कर लेते हैं, वो भी बिना किसी झिझक के । तो इसी प्रकार सेक्स भी शरीर की एक जरूरत है ।
जरूरत बता रहा हूँ इसका मतलब ये नहीं हुआ कि आप हद पार कर जाओ और किसी के साथ भी करो । नहीं, नागरिक समाज ने जो नियम निर्धारित कर रखें हैं उस हिसाब से करो जैसे शादी, लिव इन, गर्लफ्रेंड- बॉयफ्रेंड ( शादी को छोड़कर बाकि का भारत में चलन कम है ) । हम लोग तो किसी के फोन पर बात करने, विपरीत सेक्स के साथ चलने, हाथ पकड़ने, गले मिलने तक को स्वीकार नहीं कर पा रहे हैं तो सेक्स को इतने खुले तौर पर स्वीकार करना तो बड़ी दूर की कोड़ी है इस देश में ।

अभी तो चलो फिर भी कुछ बदलाव हुये हैं वरना पहले पहल तो गाँवों में ( देश की 75 % जनसंख्या ) किसी शादीशुदा जोड़े ने रात को सेक्स किया है, ये मात्र का समाज को पता चल जाने भर से वो अगले दिन किसी से नजरें नहीं मिला पाते थे ।

यौन रोगों के बारे में भ्रांति न फैले, लोग एड्स जैसी गंभीर बीमारी का खुलकर इलाज करवा सके और समाज में हँसी का पात्र न बनें, दुकान में इससे बचाव के लिये बिना घबरायें कंडोम खरीद सके, आने वाली पीढ़ी को इस बारे में पूरा ज्ञान मिले और आपका बच्चा छुप-छुपकर कुछ गलत सिखने के बजाय आसानी से सही ज्ञान ले इसके लिये जरूरी है कि सेक्स को किताबों में लाइए । सेक्स को हौव्वा मत बनाइये, सेक्स को सेक्स ही रहने दें । बदलाव जरूरी हैं, इसलिये बदलाव में भागीदार बनें


Friday 25 September 2015

अमेरिका कभी भी किसी का दोस्त नही हो सकता ! --- अफ़ज़ल ख़ान

( नरेन्द्र मोदी के अमरीका दौरे पर एक विचारनीय लेख )

जैसा कहा जाता है कि पुलिस की न दोस्ती अच्छी और न ही दुश्मनी अच्छी। ये बात आज के विश्व की पुलिस (अमेरिका) पर भी लागू होती है। अमेरिका ने समय पर कभी भी अपने दोस्त मुल्कों का साथ नही दिया है, बल्कि वक़्त पर धोखा ही दिया है। ये मैं नही अमेरिका का इतिहास बताता है।
आइये हम आप को अमेरिका का इतिहास बताते है कि अपना मतलब निकालने के बाद कभी भी वक़्त पर साथ नही दिया है। ईरान का बादशाह रज़ा शाह पहेलवी अमेरिका का सब से वफादार दोस्त था। यूरोप का मीडिया उसे अमेरिकन गवर्नर कहता था। उसने अमेरिका के कहने पर ईरान में पर्दे पर पाबंदी लगा दी थी। अगर कोई महिला परदे मे निकलती थी तो पुलिस बुर्का फाड़ देती थी। शाह ईरान ने लड़कियों के स्कूलों मे स्कर्ट को यूनिफॉर्म बना दिया था। शराब, नाच खुले आम होने लगा था। ईरान पूरे विश्व मे अकेला मुल्क था जहा स्कूलों मे भी शराब की दुकानें थी। उसके बाद जब ईरान मे इंकलाब आया और शाह ईरान मुल्क से भागा और अमेरिका से मदद मांगी तो अमेरिका ने आंखे फेर ली और अमेरिका मे घुसाने से भी मना कर दिया। अमेरिका ने उस के अकाउंट भी सीज़ कर दिए, इस तरह 2 साल तक इधर-उधर भागा फिरता रहा और मिस्र में मारा गया।
अनास-तसिसु निकरागुआ (NICARAGUA) मे AMERICAN एजेंट था, अमेरिका ने उसे डॉलर और हथियार दे कर कम्यूनिज़्म के खिलाफ खड़ा किया और अमेरिका के युद्ध को अपना युद्ध समझ कर लड़ता रहा, मगर जब उस को वहा से भागना पड़ा तो अमेरिका ने उसे पहचानने से इंकार कर दिया और उसके अमेरिका आने पर भी प्रतिबंध लगा दिया। इस तरह जंगलो और पहाड़ों मे छुप-छुप कर 1980 में जंगल मे उस की मौत हो गयी।
चिली ( CHILLI) के फ़ौजी चीफ जनरल अगुस्तो पनुशे ने 1973 अमेरिका की मदद से अपनी चुनी हुई हुकूमत को हटा कर गद्दी पर क़ब्ज़ा कर लिया। पानुषे ने अमेरिका के कहने पर हज़ारों नागरिकों की हत्या कराई। अमेरिका के कहने पर कई संगठनो पर पाबंदियां लगा दी और जनता पर बहुत जुल्म किया, मगर जब हुकूमत बदली और पानुषे वहां से भागा तो अमेरिका ने उस की कोई मदद नही की, आखिर मे जब वो इंग्लैंड पहुंचा तो वहां की पुलिस ने उसे पकड़ कर चिली हुकूमत को सौंप दिया, जहां 2006 मे उस की मौत हो गयी।
अंगोला ( ANGOLA) का विद्रोही सरदार जूनास सुमोनी भी अमेरिका के सहारे ही हुकूमत संभाला और अपने मुल्क मे अमेरिका के हित के लिये काम करता रहा, लेकिन 1992 मे अमेरिका ने उसे कम्यूनिस्ट के साथ समझौता करने के लिये कहा जिस के कारण उसे मुल्क छोड़ना पड़ा और छुप-छुप कर अपनी जिंदगी बचता रहा मगर अमेरिका ने पहचानने से इंकार कर दिया।
पनामा (PANAMA) का जेनरल नुरीगा भी अमेरिका के लिये काम करता रहा और अमेरिका ने उसे कम्यूनिस्टों के खिलाफ इस्तमाल किया, मगर हुकूमत बदली और उसे जेल मे डाल दिया उस ने अपने बचाव के लिये अमेरिका से गुहार लगाई मगर अमेरिका ने मदद से इंकार कर दिया।
फिलिपीन्स का राष्ट्रपति मार्कोस 22 साल तक अमेरिका के हित मे अपने मुल्क में अमेरिका के लिये काम करता रहा। उस ने अमेरिका के इशारे पर ही अपने मुल्क मे कम्यूनिस्टों को चुन-चुन कर खत्म कर दिया, लेकिन 1986 मे अमेरिका ने ही उस की हुकूमत खतम करा दी, जिस के बाद मार्कोस ने अपनी पूरी ज़िंदगी एक छोटे मकान मे गुजार दी, मगर अमेरिक ने उसे पूछा तक नही।
सद्दाम हुसैन की कहानी तो पूरा दुनिया जानती है, अमेरिका के कहने पर ईरान पर हमला किया और 8 वर्ष तक जंग लड़ा जिस मे 10 लाख से अधिक लोग मारे गये। 1990 तक अमेरिका दोस्त रहा, मगर अमेरिका ने तेल की लालच मे इराक पर हमला कर दिया और फिर पूरी दुनिया ने देखा कि अमेरिका के इशारे पर 2006 मे उसे फांसी दे दी गयी। अमेरिका ने ओसामा बिन लादेन की मदद से अल-कायदा को बनाया और रूस के खिलाफ उस का इस्तेमाल किया, जब रूस बर्बाद हो गया और अल-कायदा से कोई मतलब नही रहा तो अये आतंकी संगठन घोषित कर दिया, जिस के फलस्वरूप अल-कायदा ने किस तरह अमेरिका से बदला लिया पूरी दुनिया ने देखा।
अमेरिका के henry kisenger ने एक बार कहा था कि "अगर आप अमेरिका के दुश्मन है तो आप के बचने के मौके हैं लेकिन बदकिस्मती से आप उस के दोस्त बन गये तो कोई भी आप को अमेरिका से नही बच सकता।"
हमे शह ईरान से सद्दाम हूसेन तक का अंजाम देखना होगा कि अमेरिका अपने दोस्तों को किस तरह धोखा देता है।
इसलिये हमारे सरकार को चाहिये कि हम अमेरिका से अधिक रूस को दोस्त बनाये रखे और चीन से भी अपनी दोस्ती बनाने की कोशिश करें क्योंकि अगला सुपर पावर चीन को ही बनना है। हमे इतिहास से सबक लेना चाहिये और अमेरिका से दूरी बनाने में ही लाभ है।

( मोहम्मद अफजल खान facebook पर संजीदा लेखन करते हैं और उनकी टिप्पणियाँ बेहद तार्किक होती हैं )

Wednesday 2 September 2015

गुंडागर्दी को देशभक्ति मत कहिए… – रवीश कुमार

आज सुबह व्हॉट्सऐप, मैसेंजर और ट्विटर पर कुछ लोगों ने एक प्लेट भेजा, जिस पर मेरा भी नाम लिखा है। मेरे अलावा कई और लोगों के नाम लिखे हैं। इस संदर्भ में लिखा गया है कि हम लोग उन लोगों में शामिल हैं, जिन्होंने याकूब मेमन की फांसी की माफी के लिए राष्ट्रपति को लिखा है। अव्वल तो मैंने ऐसी कोई चिट्ठी नहीं लिखी है और लिखी भी होती तो मैं नहीं मानता, यह कोई देशद्रोह है। मगर वे लोग कौन हैं, जो किसी के बारे में देशद्रोही होने की अफवाह फैला देते हैं। ऐसा करते हुए वे कौन सी अदालत, कानून और देश का सम्मान कर रहे होते हैं। क्या अफवाह फैलाना भी देशभक्ति है।
किसी को इन देशभक्तों का भी पता लगाना चाहिए। ये देश के लिए कौन-सा काम करते हैं। इनका नागरिक आचरण क्या है। आम तौर पर ये लोग किसी पार्टी के भ्रष्टाचारों पर पर्दा डालते रहते हैं। ऑनलाइन दुनिया में एक दल के लिए लड़ते रहते हैं। कई दलों के पास अब ऐसी ऑनलाइन सेना हो गई है। इनकी प्रोफाइल दल विशेष की पहचान चिह्नों से सजी होती हैं। किसी में नारे होते हैं तो किसी में नेता तो किसी में धार्मिक प्रतीक। क्या हमारे लोकतंत्र ने इन्हें ठेका दे रखा है कि वे देशद्रोहियों की पहचान करें, उनकी टाइमलाइन पर हमला कर आतंकित करने का प्रयास करें।
सार्वजनिक जीवन में तरह-तरह के सवाल करने से हमारी नागरिकता निखरती है। क्यों ज़रूरी हो कि सारे एक ही तरह से सोचें। क्या कोई अलग सोच रखे तो उसके खिलाफ अफवाह फैलाई जाए और आक्रामक लफ़्ज़ों का इस्तेमाल हो। अब आप पाठकों को इसके खिलाफ बोलना चाहिए। अगर आपको यह सामान्य लगता है तो समस्या आपके साथ भी है और इसके शिकार आप भी होंगे। एक दिन आपके खिलाफ भी व्हॉट्सऐप पर संदेश घूमेगा और ज़हर फैलेगा, क्योंकि इस खेल के नियम वही तय करते हैं, जो किसी दल के समर्थक होते हैं, जिनके पास संसाधन और कुतर्क होते हैं। पत्रकार निखिल वाघले ने ट्वीट भी किया है, “अब इस देश में कोई बात कहनी हो तो लोगों की भीड़ के साथ ही कहनी पड़ेगी, वर्ना दूसरी भीड़ कुचल देगी…” आप सामान्य पाठकों को सोचना चाहिए। आप जब भी कहेंगे, अकेले ही होंगे।
पूरी दुनिया में ऑनलाइन गुंडागर्दी एक खतरनाक प्रवृत्ति के रूप में उभर रही है। ये वे लोग हैं, जो स्कूलों में ‘बुली’बनकर आपके मासूम बच्चों को जीवन भर के लिए आतंकित कर देते हैं, मोहल्ले के चौक पर खड़े होकर किसी लड़की के बाहर निकलने की तमाम संभावनाओं को खत्म करते रहते हैं और सामाजिक प्रतिष्ठा को ध्वस्त करने का भय दिखाकर ब्लैकमेल करते हैं। आपने ‘मसान’ फिल्म में देखा ही होगा कि कैसे वह क्रूर थानेदार फोन से रिकॉर्ड कर देवी और उसके बाप की ज़िन्दगी को खत्म कर देता है। उससे पहले देवी के प्रेमी दोस्त को मौके पर ही मार देता है। यह प्रवृत्ति हत्यारों की है, इसलिए सतर्क रहिए।
बेशक आप किसी भी पार्टी को पसंद करते हों, लेकिन उसके भीतर भी तो सही-गलत को लेकर बहस होती है। चार नेताओं की अलग-अलग लाइनें होती हैं, इसलिए आपको इस प्रवृत्ति का विरोध करना चाहिए। याद रखिएगा, इनका गैंग बढ़ेगा तो एक दिन आप भी फंसेंगे। इसलिए अगर आपकी टाइमलाइन पर आपका कोई भी दोस्त ऐसा कर रहा हो तो उसे चेता दीजिए। उससे नाता तोड़ लीजिए। अपनी पार्टी के नेता को लिखिए कि यह समर्थक रहेगा तो हम आपके समर्थक नहीं रह पाएंगे। क्या आप वैसी पार्टी का समर्थन करना चाहेंगे, जहां इस तरह के ऑनलाइन गुंडे हों। सवाल करना मुखालफत नहीं है। हर दल में ऐसे गुंडे भर गए हैं। इसके कारण ऑनलाइन की दुनिया अब नागरिकों की दुनिया रह ही नहीं जाएगी।
ऑनलाइन गुंडागर्दी सिर्फ फांसी, धर्म या किसी नेता के प्रति भक्ति के संदर्भ में नहीं होती है। फिल्म कलाकार अनुष्का शर्मा ने ट्वीट किया है कि वह ग़ैर-ज़िम्मेदार बातें करने वाले या किसी की प्रतिष्ठा को नुकसान करने वालों को ब्लॉक कर देंगी। मोनिका लेविंस्की का टेड पर दिया गया भाषण भी एक बार उठाकर पढ़ लीजिए। मोनिका लेविंस्की ऑनलाइन गुंडागर्दी के खिलाफ काम कर ही लंदन की एक संस्था से जुड़ गई हैं। उनका प्रण है कि अब वह किसी और को इस गुंडागर्दी का शिकार नहीं होने देंगी। फेसबुक पर पूर्व संपादक शंभुनाथ शुक्ल के पेज पर जाकर देखिए। आए दिन वह ऐसी प्रवृत्ति से परेशान होते हैं और इनसे लड़ने की प्रतिज्ञा करते रहते हैं। कुछ भी खुलकर लिखना मुश्किल हो गया है। अब आपको समझ आ ही गया होगा कि संतुलन और ‘is equal to’ कुछ और नहीं, बल्कि चुप कराने की तरकीब है। आप बोलेंगे तो हम भी आपके बारे में बोलेंगे। क्या किसी भी नागरिक समाज को यह मंज़ूर होना चाहिए।
इन तत्वों को नज़रअंदाज़ करने की सलाह बिल्कुल ऐसी है कि आप इन गुंडों को स्वीकार कर लीजिए। ध्यान मत दीजिए। सवाल है कि ध्यान क्यों न दें। प्रधानमंत्री के नाम पर भक्ति करने वालों का उत्पात कई लोगों ने झेला है। प्रधानमंत्री को लेकर जब यह सब शुरू हुआ तो वह इस ख़तरे को समझ गए। बाकायदा सार्वजनिक चेतावनी दी, लेकिन बाद में यह भी खुलासा हुआ कि जिन लोगों को बुलाकर यह चेतावनी दी, उनमें से कई लोग खुद ऐसा काम करते हैं। इसीलिए मैंने कहा कि अपने आसपास के ऐसे मित्रों या अनुचरों पर निगाह रखिए, जो ऑनलाइन गुंडागर्दी करता है। ये लोग सार्वजनिक जीवन के शिष्टाचार को तोड़ रहे हैं।
मौजूदा संदर्भ याकूब मेमन की फांसी की सज़ा के विरोध का है। जब तक सज़ा के खिलाफ तमाम कानूनी विकल्प हैं, उनका इस्तेमाल देशद्रोह कैसे हो गया। सवाल उठाने और समीक्षा की मांग करने वाले में तो हिन्दू, मुस्लिम, सिख और ईसाई भी हैं। अदालत ने तो नहीं कहा कि कोई ऐसा कर देशद्रोह का काम कर रहे हैं। अगर इस मामले में अदालत का फैसला ही सर्वोच्च होता तो फिर राज्यपाल और राष्ट्रपति के पास पुनर्विचार के प्रावधान क्यों होते। क्या ये लोग संविधान निर्माताओं को भी देशद्रोही घोषित कर देंगे।
याकूब मेमन का मामला आते ही वे लोग, जो व्यापमं से लेकर तमाम तरह के भ्रष्टाचार के आरोपों के कारण ऑनलाइन दुनिया से भागे हुए थे, लौट आए हैं। खुद धर्म की आड़ लेते हैं और दूसरे को धर्म के नाम पर डराते हैं, क्योंकि अंतिम नैतिक बल इन्हें धर्म से ही मिलता है। वे उस सामूहिकता का नाजायज़ लाभ उठाते हैं, जो धर्म के नाम पर अपने आप बन जाती है या जिसके बन जाने का मिथक होता है। फिल्मों में आपने दादा टाइप के कई किरदार देखें होंगे, जो सौ नाजायज़ काम करेगा, लेकिन भक्ति भी करेगा। इससे वह समाज में मान्यता हासिल करने का कमज़ोर प्रयास करता है। अगर ऑनलाइन गुंडागर्दी करने वालों की चली तो पूरा देश देशद्रोही हो जाएगा।
यह भी सही है कि कुछ लोगों ने याकूब मेमन के मामले को धार्मिकता से जोड़कर काफी नुकसान किया है, गलत काम किया है। फांसी के आंकड़े भी इसकी पुष्टि करते हैं कि फैसले का संबंध धर्म से नहीं है। लेकिन क्या इस बात का वे लोग खुराक की तरह इस्तेमाल नहीं कर रहे हैं, जो हमेशा इसी फिराक में रहते हैं कि कोई चारा मिले नहीं कि उसकी चर्चा शहर भर में फैला दो। क्या आपने इन्हें यह कहते सुना कि वे धर्म से जोड़ने का विरोध तो करते हैं, मगर फांसी की सज़ा का भी विरोध करते हैं। याकूब का मामला मुसलमान होने का मामला ही नहीं हैं। पुनर्विचार एक संवैधानिक अधिकार है। नए तथ्य आते हैं तो उसे नए सिरे से देखने का विवेक और अधिकार अदालत के पास है।
90 देशों में फांसी की सज़ा का प्रावधान नहीं हैं। क्या वहां यह तय करते हुए आतंकवाद और जघन्य अपराधों का मामला नहीं आया होगा। बर्बरता के आधार पर फांसी की सज़ा का करोड़ों लोग विरोध करते हैं। आतंकवाद एक बड़ी चुनौती है। हमने कई आतंकवादियों को फांसी पर लटकाया है, पर क्या उससे आतंकवाद ख़त्म हो गया। सज़ा का कौन-सा मकसद पूरा हुआ। क्या इंसाफ का यही अंतिम मकसद है, जिसे लेकर राष्ट्रभक्ति उमड़ आती है। इनके हमलों से जो परिवार बर्बाद हुए, उनके लिए ये ऑनलाइन देशभक्त क्या करते हैं। कोई पार्टी वाला जाता है उनका हाल पूछने।
फांसी से आतंकवाद खत्म होता तो आज दुनिया से आतंकवाद मिट गया होता। आतंकवाद क्यों और कैसे पनपता है, उसे लेकर भोले मत बनिए। उन क्रूर राजनीतिक सच्चाइयों का सामना कीजिए। अगर इसका कारण धर्म होता और फांसी से हल हो जाता तो गुरुदासपुर आतंकी हमला ही न होता। उनके हमले से धार्मिक मकसद नहीं, राजनीतिक मकसद ही पूरा होता होगा। धर्म तो खुराक है, ताकि एक खास किस्म की झूठी सामूहिक चेतना भड़काई जा सके। जो लोग इस बहस में कूदे हैं, उनकी सोच और समझ धार्मिक पहचान से आगे नहीं जाती है। वे कब पाकिस्तान को आतंकी बता देते हैं और कब उससे हाथ मिलाकर कूटनीतिक इतिहास रच देते हैं, ऐसा लगता है कि सब कुछ टू-इन-वन रेडियो जैसा है। मन किया तो कैसेट बजाया, मन किया तो रेडियो। मन किया तो हम देशभक्त, मन किया तो आप देशद्रोही।

( यह लेख http://khabar.ndtv.com/news/blogs/ravish-kumar-writes-about-online-goons-and-the-patriotism-1200971 से लिया गया है। )

रवीश कुमार वरिष्ठ हिंदी पत्रकार हैं, एनडीटीवी इंडिया में प्राइम टाइम के एंकर के रूप में देश भर में लोकप्रिय हैं। सोशल मीडिया पर सक्रिय हैं और अपनी बात को अपनी तरह से कहने में संकोच न करने के लिए पसंद किए जाते हैं।

डॉ कलाम को श्रद्धांजलि

डॉ. एपीजे अब्दुल कलाम (Avul Pakir Jainulabdeen Abdul Kalam ) का जन्म 15 October 1931 को तमिलनाडु के Rameswaram में हुआ । इन्होंने 1960 ...