Monday 15 January 2018

पद्मावती के जौहर से सुलगता देश

हफ्ते भर पहले खबर आई कि CM वसुंधरा राजे सिंधिया ने राजस्थान में पद्मावत को रिलीज करने पर प्रतिबंध लगा दिया । फिर इसका अनुसरण करते हुए गुजरात CM विजय रुपाणी ने गुजरात मे और शिवराज सिंह चौहान ने MP में इसे प्रतिबंधित कर दिया ।
मेरे मन में फिल्म को लेकर "क्यों ?" की शक्ल में बहुत से सवाल उठ रहे है कि
* आखिर "क्यों" इस फिल्म को प्रतिबंधित किया जा रहा है ?
* आखिर "क्यों" किसी को उसकी बात कहने से रोका जा रहा है जबकि अभिव्यक्ति की आजादी मूल अधिकार है
* आखिर "क्यों" देशभर के राजपूत एक काल्पनिक पात्र के लिये वास्तविकता से लड़ने को उतावले हो रहे है
* आखिर "क्यों" करणी सेना पद्मावती की रिलीज को रोकने पर अड़ा है ।

उपरोक्त तमाम "क्यों ?" के जवाब बारी - बारी से आपके सामने रख रहा हूँ, पहले "क्यों" जवाब है कि यह फ़िल्म राजपूतों की भावनाएं आहत कर रही है इसलिए इसे बैन किया जाना चाहिए । जबकि तमाम इतिहासकारों के मुताबिक पद्मिनी ( पद्मावती ) नाम की रानी जरूर हुई थी पर बाकी सभी बातें काल्पनिक है, जिनकी ऐतिहासिकता शत प्रतिशत संदिग्ध है । मलिक मोहम्मद जायसी रचित पद्मावत नामक महाकाव्य में लिखे ऐतिहासिक तथ्य हर तरह अप्रासंगिक है । इस संदर्भ में सर्वाधिक उद्धृत तथा प्रमाणभूत मत महामहोपाध्याय रायबहादुर गौरीशंकर हीराचंद ओझा का मत माना गया है। ओझा जी ने पद्मावत की कथा के संदर्भ में स्पष्ट लिखा है कि "इतिहास के अभाव में लोगों ने पद्मावत को ऐतिहासिक पुस्तक मान लिया, परंतु वास्तव में वह आजकल के ऐतिहासिक उपन्यासों की सी कविताबद्ध कथा है, जिसका कलेवर इन ऐतिहासिक बातों पर रचा गया है कि रतनसेन (रत्नसिंह) चित्तौड़ का राजा, पद्मिनी या पद्मावती उसकी राणी और अलाउद्दीन दिल्ली का सुल्तान था, जिसने रतनसेन (रत्नसिंह) से लड़कर चित्तौड़ का किला छीना था। बहुधा अन्य सब बातें कथा को रोचक बनाने के लिए कल्पित खड़ी की गई है; क्योंकि रत्नसिंह एक बरस भी राज्य करने नहीं पाया, ऐसी दशा में योगी बन कर उस की सिंहलद्वीप (लंका) तक जाना और वहाँ की राजकुमारी को ब्याह लाना कैसे संभव हो सकता है। उसके समय सिंहलद्वीप का राजा गंधर्वसेन नहीं किन्तु राजा कीर्तिनिश्शंक देव पराक्रमबाहु (चौथा) या भुवनेक बाहु (तीसरा) होना चाहिए। सिंहलद्वीप में गंधर्वसेन नाम का कोई राजा ही नहीं हुआ। उस समय तक कुंभलनेर (कुंभलगढ़) आबाद भी नहीं हुआ था, तो देवपाल वहाँ का राजा कैसे माना जाय ? अलाउद्दीन 8 वर्ष तक चित्तौड़ के लिए लड़ने के बाद निराश होकर दिल्ली को नहीं लौटा किंतु अनुमान 6 महीने लड़ कर उसने चित्तौड़ ले लिया था, वह एक ही बार चित्तौड़ पर चढ़ा था, इसलिए दूसरी बार आने की कथा कल्पित ही है।"


जबकि इतिहास पर एक नजर डालें तो उसमें हजारों राजपूत राजाओं ने अपना राजपाट बचाने के लिये अपनी बहन - बेटियां मुगल / मुस्लिम शासकों से ब्याही है । अगर अकेले राजस्थान की बात करें तो 15वीं सदी से लेकर 20वीं तक का इतिहास खंगाला जाये तो हजारों नाम मिलेंगे, जिनमें राजस्थान के प्रमुख रजवाड़े जोधपुर, आमेर ( जयपुर ) , अजमेर , चितौड़, बीकानेर आदि से दर्जनों बहन / बेटियों को ब्याहा गया है । और इन शादियों में अकेली राजकुमारी ही नहीं भेजी जाती, बल्कि उनके साथ तमाम तरह की महिला नौकर भी भेजी जाती, जो कि एक तरह से राजकुमारी के साथ राजा को भेंट स्वरूप भेजी जाती थी । इसके अलावा इतिहास खंगाले तो पता चलता है कि अकबर का जोधपुर की राजकुमारी जोधा से विवाह हुआ था, ततपश्चात उसी जोधपुर राजघराने ने अपनी बेटियां फिर से मुगलों से ब्याही थी जिनमें जहांगीर की पहली बीबी उसकी माँ जोधा की भतीजी थी तो जहांगीर की दूसरी बीबी जोधा के भतीजे की बेटी थी ।

चलिए, एक बरगी मान भी लिया जाए कि पद्मावती असल मे हुई थी, और उसके लिये 2 साल युद्ध चला हो तो अब जब इतने अनगिनत उदाहरण इतिहास में भरे पड़े है तो फिर राजपूत समाज द्वारा विरोध क्यों किया जा रहा है ?

अब आते है अभिव्यक्ति की आज़ादी पर, जिसपर पिछले कुछ सालों में जोर जबरदस्ती से प्रहार किए गए है । उदाहरण के तौर पर डॉ. दाभोलकर, गोविंद पंसारे, प्रो. कुलबर्गी, गौरी लंकेश के नाम प्रमुख है जिनकी हत्या तक कर दी गयी । इन सब पर कोई एक्शन न होना यह दर्शाता है कि ये तमाम हत्याएं सरकार की शह पर हुई है ।

इस फ़िल्म का मुखर विरोध करने वाली करणी सेना का मुखिया, सुखबीर सिंह गोगामेड़ी, खुद एक स्टिंग में यह कहता पाया गया है कि पैसे ले-देकर हम इसे खत्म कर सकते है, विरोध तो सिर्फ दिखावा है ।
आपको बता दूं कि ये वही सुखदेव सिंह गोगामेड़ी है जिसपर कई आपराधिक केस चल रहे है और चुरू और हनुमानगढ़ जिले का छंटा हुआ बदमाश है, जो चुनाव भी लड़ चुका है और कुछ साल पहले ही अचानक से करणी सेना का प्रदेश अध्यक्ष बन गया था । अब सवाल ये उठता है कि क्या राजपूत समाज के पास नेतृत्व की इतनी कमी है जो एक अपराधी पूरे समाज की दशा और दिशा तय कर रहा है ।

ये सब बातें तो हुई पद्मावती ( अब पद्मावत ) को लेकर, पर इन सबके इतर एक मनोवैज्ञानिक पहलू और भी है जिसकी पड़ताल हमें करनी चाहिये, वो है कि आखिर क्यों लोग देशभक्ति/संस्कृति के नाम पर परोसे जा रहे झूठ पर आसानी से यकीन कर लेते है और बिना सच जाने ही मार-काट, हिंसक प्रदर्शन पर उतारू हो जाते है ?

इसके पीछे सबसे बड़ा कारण है अशिक्षा, तर्कविहीन समाज का । ये दंगा फसाद फैलाने वाले आम लोग नही है, ये किसी संगठन/विचारधारा विशेष के लोग है जो देशभक्ति/संस्कृति के नाम पर बवण्डर खड़ा करते है । चूँकि भारत का पिछले 300 सालों का इतिहास धार्मिक और सामाजिक वैमनष्य का रहा है, ज्यादातर लोग धार्मिक तौर पर असहिष्णु है इसलिये धर्म के नाम पर आसानी से भड़क जाते है ।
अगर कुछ विशेष उदाहरण छोड़ दिए जाएं तो आम आदमी मार - काट और हिंसक प्रदर्शन करने को इतनी आसानी से उतारू नही होता है । हां, अपनी प्रतिक्रियाएं जरूर दर्ज करवाता है ।
द्वितीय विश्वयुद्ध के समय हिटलर ने गोएबल्स नामक व्यक्ति को अपना प्रचारमंत्री ( जैसे PM नरेंद्र मोदी के लिए अमेरिकन APCO ) नियुक्त किया था जिसकी सीधी सी थ्योरी थी कि एक झूठ को अगर 100 बार बोला जाए तो लोग उसे सच मानने लग जाते है क्योंकि आम आदमी जीवन के संघर्षों में इस कदर उलझा रहता है कि उसके पास सच जानने जितना समय नहीं बचता है और वो अंततः उस भेड़चाल का हिस्सा बन जाता है ।
अगर इस भेड़चाल को रोकना है तो गलत और भ्रामक सूचनाएं फैलाने वाले तत्त्वों को रोकना होगा और समाज को शिक्षित कर उसे अधिक से अधिक तर्कशील बनाना होगा ।

डॉ कलाम को श्रद्धांजलि

डॉ. एपीजे अब्दुल कलाम (Avul Pakir Jainulabdeen Abdul Kalam ) का जन्म 15 October 1931 को तमिलनाडु के Rameswaram में हुआ । इन्होंने 1960 ...