Sunday 6 October 2013

धरती पुत्र चौ. महेन्द्र सिंह टिकैत : किसानों की आन, बान और शान

किसान मसीहा " चौ महेन्द्र सिंह टिकैत " के जन्म दिवस पर हार्दिक शुभ कामनाएं ।
चौधरी साहब का जन्म 6 अक्तुबर 1935
सिसौली गांव, मुज्जफरनगर में हुआ था ।
वो किसानो के मसिहा के रुप में जाने जाते थे ।


उनका स्मरण करते समय एक छवि है,  हाथ में हुक्का गुडगुडाता एक देहाती किसान और  उनका जुझारुपन, अक्खड़ता और ठेठ गंवई अंदाज, और स्वाभिमान ऐसा कि खोजे न मिले,ऐसी शख्सियत थे चौधरी साहब ।
अक्खड़ दिखाई देने वाले इस व्यक्ति में मिलनसारिता कूट-कूट कर भरी हुई थी। व्यवहारिक इतनी कि यदि आप एक
बार बिना परिचय के भी मिलने चले जाएं तो उसके
मुरीद हो जाएं। टिकैत को नेतृत्व के गुण
तो विरासत में मिले थे लेकिन अद्भुत संघर्ष
की क्षमता ने उन्हें उस मुकाम पर पंहुचा दिया,
जहां किसान उन्हें 'बाबा' और 'भगवान'
का दर्जा दिया करते थे। चौधरी महेन्द्र सिंह टिकैत को एक जुझारु किसान
नेता के तौर पर पूरी दुनिया जानती है लेकिन यह
व्यक्ति एक दिन में या किसी की कृपा से
'किसानों का मसीहा' नहीं बन गया बल्कि सच
तो यह है कि कभी इस शख्सीयत ने धूप-छांव,
भूख-प्यास, लाठी-जेल की परवाह नहीं की। अगर
अपने कदमों को किसान संघर्ष के लिए बाहर
निकाल दिया तो फिर कभी पीठ नहीं दिखाई लेकिन
यदि लगा कि इससे
किसानों या साथियों का नुकसान
हो जाएगा तो कभी मूछ का सवाल भी नहीं बनाया।
1935 में जन्में चौधरी महेन्द्र सिंह टिकैत
को आठ साल की उम्र में तब बालियान खाप
का मुखिया बनाया गया था जब वह महज आठ
साल के थे। ये गद्दी उन्हें अपने पिता के निधन के
बाद विरासत में
मिली थी क्योंकि तेरहवीं शताब्दी से इस खाप
की चौधराहट टिकैत खानदान के पास
ही चलती चली आ रही थी। टिकैत जाटों के
रघुवंशी गौत्र से ताल्लुक रखते थे लेकिन बालियान
खाप में सभी बिरादरियां शामिल थीं। टिकैत ने
बचपन से ही खाप व्यवस्था को समझा और
'जाति' से ऊपर 'किसान' को स्थापित करने में जुट
गए। उनकी प्रशासकीय और न्यायिक सूझ गजब
की थी। वह हमेशा दूसरी खापों से गूढ़ संबंध रखते
और एक दिन 17 अक्टूबर 1986 को किसानों के
हितों की रक्षा के लिए एक गैर राजनीतिक संगठन
'भारतीय किसान यूनियन' की स्थापना कर ली।
यह वह समय था जब चौधरी चरण सिंह की मृत्यु के बाद किसान राजनीति में एक शून्य
पैदा हो गया था। किसानों की हालत यह
थी कि डरा-सहमा किसान जब खाद, पानी,
बिजली की समस्याओं को लेकर जब
सरकारी दफ्तरों में जाता था तब उसे दुत्कार कर
भगा दिया जाता था। अजित सिंह चौधरी चरणसिंह
के बारिस तो थे लेकिन आम किसान उन्हें
चौधरी साहब की वजह से
ही अपना मानता था क्योंकि एलीट क्लास के
अजित किसानों से उनके अपने जैसा व्यवहार
नहीं कर पाते थे। 
हांलाकि बीकेयू उन दिनों लोकल
संगठन था लेकिन सूबे के किसानों की समस्याएं
एक जैसी थीं। टिकैत ने जब देखा कि गांवों में
बिजली न मिलने से किसान परेशान है, उसकी फसलें
सूख रहीं हैं, चीनी मिलें उनके गन्ने को औने-पौने
दामों में खरीदती हैं तो उन्होंने
किसानों की समस्याओं को लेकर 27
जनवरी 1987 को मुजफ्फरनगर के शामली कस्बे
में स्थित करमूखेड़ी बिजलीघर को घेर लिया और
हजारों किसानों के साथ समस्या निदान के लिए
वहीं धरने पर बैठ गए। पुलिस-प्रशासन ने तीन दिन
तक कोशिश की कि किसान किसी तरह वहां से उठ
जाएं लेकिन जब किसान टिकैत के नेतृत्व में
वहां डटे रहे तो पुलिस ने उन पर
सीधी गोलियां चला दीं। इस गोलबारी में दो किसान
जयपाल और अकबर अली ने मौके पर ही दम तोड़
दिया। टिकैत के नेतृत्व में किसानों ने गोलीबारी में
मारे गए दोनों युवकों के शव पुलिस को घटनास्थल
से नहीं उठाने दिए।
इतना ही नहीं टिकैत आंदोलन में
शहीद हुए किसानों के अस्थिकलश गंगा में
प्रवाहित करने खुद शुक्रताल के लिए रवाना हुए
तो उनके पीछे
इतना बड़ा किसानों का कारवां था कि उनके रास्ते
में एक भी खाकी वर्दी वाला दिखाई नहीं दिया।
अस्थि कलश यात्रा में टिकैत के पीछे चलती भीड़
की संख्या का अंदाजा लगाना तो मुश्किल
था लेकिन जितना मैने देखा उसके मुताबिक
यात्रा का एक सिरा शुक्रताल पंहुच चुका था लेकिन
दूसरा सिरा मुजफ्फरनगर में था। इसके बाद टिकैत
का जुझारुपन किसानों को इतना भाया कि इस
आंदोलन के बाद से उनके मुंह से निकले शब्द
किसानों के लिए ब्रह्मवाक्य बन गए।
टिकैत ने पश्चिमी उत्तर प्रदेश के सभी किसानों को एकजुट कर दिया और सभी खापें एक मंच पर आ गईं।
टिकैत के शब्द भले ही ब्रह्मवाक्य बन चुके थे
लेकिन उन्होंने हमेशा किसी भी आंदोलन को शुरु
करने या खत्म करने के लिए मंच पर
सभी खापों और सभी बिरादरियों के
पंचों को बिठाया और उनकी रायशुमारी पर आगे
का फैंसला लिया। ये उनके नेतृत्व का गुण
था कि वह 'शक्तिशाली' होने के बाद
भी लोकतांत्रिक परंपराओं का हमेशा निर्वहन करते थे।
दो किसानों की मौत के बाद टिकैत ने आंदोलन बंद
नहीं किया बल्कि 1 अप्रैल 1987 को उन्होंने
वहां किसानों की सर्वखाप महापंचायत बुलाई और
उसमें फैंसला लिया कि शामली तहसील या जिले में
उनकी मांगों पर कोई विचार नहीं हो रहा इसलिए
कमिश्नरी घेरी जाए। लाखों किसानों की इस
महापंचायत में फैसला लेने के बाद 27
जनवरी को मेरठ कमिश्नरी पर डेरा डाल दिया।
लाखों किसानों ने मेरठ कमिश्नरी घेर ली और
वहीं पर किसानों ने खाने के लिए
भट्टियां सुलगा दीं। नित्य कर्मों के लिए
कमिश्नरी का मैदान सुनिश्चित कर लिया ।
35 सूत्रीय मांगों को लेकर यह आंदोलन शांतिपूर्ण तरीके से चौबीस दिन चला ।
आंदोलन में भाग लेने आए कई किसान ठंड लगने से मर गए लेकिन टिकैत के नेतृत्व में किसान टस से मस नहीं हुए। पुलिस- प्रशासन ने उन्हें उकसाने की बहुत कोशिश की लेकिन उन्होंने अहिंसा का रास्ता नहीं छोड़ा।
चौधरी महेन्द्र सिंह टिकैत अब महात्मा टिकैत के
नाम से पुकारे जाने लगे थे। शासन-प्रशासन
हतप्रभ था कि इतने दिन तक इतने किसान भयंकर सर्दी के मौसम में खुले आसमान के नीचे कैसे डटे हुए हैं।
चौबीस दिन बाद टिकैत ने सरकार को गूंगी-
बहरी कहते हुए यह आंदोलन खुद यह कह कर
खत्म कर दिया कि कमिश्नरी में उनकी सुनवाई
संभव नहीं तो वह लखनऊ और दिल्ली में दस्तक
देंगे। इसके बाद रेल रोको-रास्ता रोको आंदोलन में
पुलिस ने गोलियां चला दीं तो टिकैत दल-बल सहित
6 मार्च 1988 को रजबपुरा पंहुच गए और एक
सौ दस दिन तक किसानों के साथ तब तक धरने
पर बैठे रहे जब तक गूंगी-बहरी सरकार के कानों में
जूं नहीं रेंगी। रजबपुरा के बाद टिकैत ने देश भर के
किसान नेताओं और किसानों के अराजनीतिक
संगठनों से संपर्क किया और उनके साथ एक बैठक
में फैंसला लेने के बाद 25 अक्टूबर को वोट क्लब
पंहुच गए। लाखों किसानों ने वोट क्लब को घेर
लिया। उन्हें हटाने के लिए पुलिस ने काफी यत्न
किए। पानी की बौछारों और लाठियों के सहारे उन्हें
उत्तेजित करने की भी कोशिश की गई लेकिन टिकैत
और उनके नेतृत्व में किसान यह जान चुके थे
कि उनका हथियार अहिंसा है। सात दिन चले धरने
में केंद्र सरकार के प्रतिनिधियों के आग्रह और
आश्वासन के बाद टिकैत ने वोट क्लब से
किसानों का धरना उठा लिया।
मेरठ कमिश्नरी, रजबपुरा और वोट क्लब
की रैलियों में टिकैत की मुट्ठी में
लाखों किसानों को देख राजनीतिक दिग्गज उनसे
नजदीकियां बनाने का जतन करने लगे। नब्बे के
दशक में यूपी और हरियाणा से उन्हें राज्यसभा में
पद ग्रहण करने का न्यौता भी मिला लेकिन
बाबा ने स्वीकार नहीं किया। पूर्व
प्रधानमंत्री देवगौड़ा से टिकैत
की नजदीकियां किसी से छिपी नहीं रही।
कभी उपप्रधानमंत्री रहे स्वर्गीय देवीलाल ने
भी टिकैत को किसान हित के लिए राजनीति में
कूदने की सलाह दी थी। टिकैत ने राजनेताओं से
नजदीकियां तो रखीं लेकिन कभी प्रत्यक्ष रूप से
कोई लाभ नहीं लिया और न संघर्ष
का रास्ता छोड़ा। हांलाकि उनके बेटे राकेश टिकैत ने
भारतीय किसान यूनियन की राजनीतिक बिंग
बनाकर चुनाव भी लड़े लेकिन पुत्रमोह में टिकैत ने
बस इतना किया कि वह अपने पुत्र की राजनीतिक
हसरतों पर खामोश रहे। सापेक्ष रूप से
कभी राजनीतिक गतिविधियों का साथ नहीं दिया।
संघर्ष की राह को हमेशा कायम रखा। वोट क्लब
के बाद भी उन्होंने दर्जनों बड़े आंदोलन किए और
कई बार उन्हें जेल भी जाना पड़ा लेकिन वह न
कभी याचक बने और न स्वाभिमान से
समझौता किया।
उनकी खुद्दारी को इसी से
समझा जा सकता है कि जब 8 मार्च 2011 
को प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने उन्हें
सरकारी खर्चे पर दिल्ली में बेहतर इलाज
की पेशकश की तो वह गंभीर अवस्था में भी ठहाके
लगा कर हंस दिए। उन्होंने प्रधानमंत्री से सिर्फ
इतना कहा कि उनकी हालत गंभीर है; पता नहीं कब
क्या हो जाए, ऐसे में यदि उनके जीते जी केंद्र
सरकार किसानों की भलाई में कुछ ऐसा ठोस कर दे
जिससे वह आखिरी वक्त में कुछ राहत महसूस कर
सकें और उन्हें दिल से धन्यवाद दे
सके
......15 मई 2011 को किसानो के इस मसीहा ने अंतिम सांस ली ......आज ये किसान नेता हमारे बीच
नहीं है और समस्याएं भी वही हैं.........काश!
वह अपने जीवन में किसानों को खुशहाल देख पाता।
काश! उसे अपने अंतिम दिनों में टप्पल और
भट्टा पारसौल जैसी लोमहर्षक घटनाएं न देखने
को मिलतीं.................ऐसे में समझ में नहीं आ
रहा कि उस महान दिवंगत आत्मा की शांति के लिए
प्रार्थना कैसे करूं।
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Tuesday 1 October 2013

बुजुर्ग - Free Encyclopedia

अंतराष्ट्रीय वृद्धजन दिवस पर सभी को बधाई और सभी बुजुर्गों के लिए शुभकामनायें और उनसे अनुरोध है कि वो सब पर अपना आशीर्वाद बनाये रखें और हमारा मार्गदर्शन करते रहें ।

बुजुर्ग शब्द दिमाग में आते ही उम्र व विचारों से परिपक्व व्यक्ति की छवि सामने आती है । बुजुर्ग अनुभवों का वह खजाना है जो हमें जीवन पथ के कठिन मोड़ पर उचित दिशा निर्देश करते हैं  । वरिष्ठ नागरिक हमारे गौरव हैं, वे पूज्यनीय हैं उनका सम्मान किया जाना चाहिए। बेकार पुरानी चीज समझ उन्हें घर के कोने में रख देना अपमानित करना है। यदि ऐसा करते हैं तो आने वाली हमारी संतानें वैसा ही व्यवहार करेंगी ।

आपके लिए मैं तो सिर्फ इतना ही कहूँगा कि "उम्र कोई सीमा नही है बल्कि ये तो एक आंकड़ा है ज्ञान का, जिन्दगी के तजुर्बे का, अनुभव का, खट्टी-मिठ्ठी यादों का ।"
या फिर आज के ज़माने के हिसाब से परिभाषित करूं तो  "बुजुर्ग समाज का ऐसा ओपन ऑफलाइन इनसाइक्लोपीडिया हैं जो बिना कोई दिक्कत के घर पर ही 24*7 सर्विस देते हैं ।"

आप तो समाज और परिवार के वो गुरु होते हैं जहाँ बिना किताब के ही जिन्दगी जीना सिखा देते हैं ।जो लोग आजकल एकल परिवार को प्राथमिकता देते हैं और बुजुर्गों को साथ रखने में शर्म महसूस करते हैं उनको इतना ही कहना चाहता हूँ कि  किताबी ज्ञान से जिन्दगी नहीं जी जाती है इसलिए बुजुर्गों की उपयोगिता को नकारे नहीं बल्कि  बढ़ावा दें । इनकी इज्जत करें और संयुक्त परिवार को बढ़ावा दें ।ये तो ज्ञान का वो घड़ा है जिसकी जरुरत तब तक रहेगी जब तक ये धरती रहेगी ।ये खत्म तो ये दुनिया ख़त्म ।
आप लोगों ने हमे संस्कार दिये, सभ्यता दी, जीवन जीने की कला सिखायी, और सबसे जरुरी बात सम्मान के साथ रहना और मेहनत कश जीवन जीना सिखाया बिना किसी स्वार्थ के ।

हमने भगवान नही देखे पर उनके बारे में सुना यही है कि वो निस्वार्थ सेवा करते हैं भक्तों की और ये सब हमने आप में देखा है इसलिये हमारे तो आप ही भगवान हुए । आपने हमेशा समाज और परिवार को सिर्फ दिया माँगा कुछ नही । आपने हमें एक नई कला सिखायी - ' आर्ट ऑफ़ गिविंग (Art Of Giving)'. इसलिए हमारा भी फर्ज बनता है कि जेसे आपने हमें बिन मांगे पूरी दुनिया दी उसी तरह हम भी आपको बिना माँगे दुनिया की हर ख़ुशी दें ।

(Photo : श्री पन्नाराम जी पूनिया, मेरे दादाजी )

डॉ कलाम को श्रद्धांजलि

डॉ. एपीजे अब्दुल कलाम (Avul Pakir Jainulabdeen Abdul Kalam ) का जन्म 15 October 1931 को तमिलनाडु के Rameswaram में हुआ । इन्होंने 1960 ...