Thursday 10 December 2015

रमाशंकर यादव 'विद्रोही' - जनता का पागल कवि

न तो मैं सबल हूं,
न तो मैं निर्बल हूं,
मैं कवि हूं।
मैं ही अकबर हूं,
मैं ही बीरबल हूं।

उपरोक्त पंक्तियों को चरितार्थ करने वाले जनकवि रमाशंकर यादव 'विद्रोही' का जन्म 3 दिसंबर 1957 को ऐरी फिरोजपुर ( जिला सुल्तानपुर) में रामनारायण यादव व श्रीमती करमा देवी के घर हुआ । जनता का ये प्रखर कवि ‘विद्रोही’ के नाम से विख्यात था ।
कुछ समय नोकरी करने के बाद 1980 में दिल्ली के जवाहरलाल नेहरू विश्विद्यालय में हिन्दी से एम. ए. करने आ गए। 1983 के छात्र आन्दोलन में बढ़ चढ़ कर हिस्सा लेने के चलते कैंपस से निकल दिए गए। 1985 में उनपर मुक़दमा चला। तबसे उन्होंने आन्दोलन की राह से पीछे पलटकर नहीं देखा ।
विद्रोही जी छात्रों के हर न्यायपूर्ण आंदोलन में तख्ती उठाए, नारे लगाते, कविताएं सुनाते, सड़क पर आखिरी साँस तक साथ रहे । जे़ एन. यू. में रहते करीब 3 दशक तक विद्रोही जी दिल्ली की सडकों पर, बैरिकेडों और पुलिस घेराबन्दियों को तोड़ते हुये हर तरह के शोषण विरुद्ध अपनी आवाज बुलन्द की । दिल्ली स्थित जवाहरलाल नेहरु विश्वविद्यालय (जेएनयू) के छात्रों, चाहे उनके विरोधी विचारधारा के हो, के बीच उनकी कविताएँ ख़ासी लोकप्रिय रही हैं ।

वे कहते थे, "जेएनयू मेरी कर्मस्थली है। मैंने यहाँ के हॉस्टलों में, पहाड़ियों और जंगलों में अपने दिन गुज़ारे हैं।
"
इस क्रांतिकारी कवि का अंत भी क्रांतिकारी रहा, अपनी आखिरी साँस भी विद्रोही जी ने सरकार द्वारा नॉन नेट फैलोशिप बन्द करने के विरोध में आयोजित प्रदर्शन के दौरान ही ली ।




( Photo : JNU छात्रसंघ कार्यालय में अंतिम दर्शनार्थ हेतु जमा छात्र )
( अंतिम यात्रा की ओर )

बकौल गिरिराज वैद " वे बिना किसी आय के स्रोत के छात्रों के सहयोग से किसी तरह कैंपस के अंदर जीवन बसर करते रहे हैं। अगस्त 2010 में जेएनयू प्रशासन ने अभद्र और आपत्तिजनक भाषा के प्रयोग के आरोप में तीन वर्ष के लिए परिसर में उनके प्रवेश पर पाबंदी लगा दी थी। जेएनयू के छात्र समूह ने प्रशासन के इस रवैए का पुरज़ोर विरोध किया। तीन दशकों से घर समझने वाले जेएनयू परिसर से बेदखली उनके लिए मर्मांतक पीड़ा से कम नहीं थी । कुछ लोगो कहते है की वो आधे पागल थे, हाँ जितना उनके बारे में सुना है, वो ऐसे ही थे, ऐसे पागल जिनके जाने की सुनते ही हजारो आँखे बरस पड़ी ।"


उनके बारे में समर अनार्य एक किस्सा बताते हैं -
"जनकवि विद्रोही को इस ठण्ड में सुबह 7 बजे बिना जूतों के जाते देख जेनयू की ही ईरानी-फिलिस्तीनी कामरेड Shadi Farrokhyani ने पूछा कि जूते क्या हुए ?
विद्रोही दा का जवाब था- उस दिन प्रदर्शन में फेंक के पुलिस को मार दिया।"



नितिन पमनानी ने विद्रोही के जीवन संघर्ष पर आधारित एक शॉर्टफिल्म I Am Your Poet (मैं तुम्हारा कवि हूँ )  हिंदी और भोजपुरी में बनाया है। मुंबई अंतरराष्ट्रीय फिल्म महोत्सव में इस फिल्म ने अंतरराष्ट्रीय स्पर्धा श्रेणी में सर्वश्रेष्ठ फिल्म का गोल्डन कौंच पुरस्कार जीता।

विद्रोही मानते थे कि क्रांतिकारी मरते नहीं, जैसे वो अपनी एक कविता में कहते हैं -
“मरने को चे ग्वेरा भी मर गए
और चंद्रशेखर भी
लेकिन वास्तव में कोई नहीं मरा है
सब जिंदा हैं
जब मैं जिंदा हूँ
इस अकाल में
मुझे क्या कम मारा गया है
इस कलिकाल में
अनेकों बार मुझे मारा गया है
अनेकों बार घोषित किया गया है
राष्ट्रीय अखबारों में पत्रिकाओं में
कथाओं में, कहानियों में
कि विद्रोही मर गया।
तो क्या मैं सचमुच मर गया!
नहीं मैं जिंदा हूँ
और गा रहा हूं…… "

अलविदा कामरेड "विद्रोही"
लाल सलाम

उनकी कुछ रचनायें...
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1- पत्थर के भगवान
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तुम्हारे मान लेने से
पत्थर भगवान हो जाता है,
लेकिन तुम्हारे मान लेने से
पत्थर पैसा नहीं हो जाता।
तुम्हारा भगवान पत्ते की गाय है,
जिससे तुम खेल तो सकते हो,
लेकिन दूध नहीं पा सकते।
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2- आसमान में धान
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मैं किसान हूँ
आसमान में धान बो रहा हूँ
कुछ लोग कह रहे हैं कि पगले!
आसमान में धान नहीं जमा करता
मैं कहता हूँ पगले!
अगर ज़मीन पर भगवान जम सकता है
तो आसमान में धान भी जम सकता है
और अब तो
दोनों में से कोई एक होकर रहेगा
या तो ज़मीन से भगवान उखड़ेगा
या आसमान में धान जमेगा।
.
3-

मैं भी मरूंगा
और भारत के भाग्य विधाता भी मरेंगे
लेकिन मैं चाहता हूं
कि पहले जन-गण-मन अधिनायक मरें
फिर भारत भाग्य विधाता मरें
फिर साधू के काका मरें
यानी सारे बड़े-बड़े लोग पहले मर लें
फिर मैं मरूं- आराम से
उधर चल कर वसंत ऋतु में
जब दानों में दूध और आमों में बौर आ जाता है
या फिर तब जब महुवा चूने लगता है
या फिर तब जब वनबेला फूलती है
नदी किनारे मेरी चिता दहक कर महके
और मित्र सब करें दिल्लगी
कि ये विद्रोही भी क्या तगड़ा कवि था
कि सारे बड़े-बड़े लोगों को मारकर तब मरा॥



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4-औरते
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'कुछ औरतों ने अपनी इच्छा से कूदकर जान दी थी
ऐसा पुलिस के रिकॉर्ड में दर्ज है
और कुछ औरतें अपनी इच्छा से चिता में जलकर मरी थीं
ऐसा धर्म की किताबों में लिखा हुआ है
मैं कवि हूँ, कर्त्ता हूँ
क्या जल्दी है
मैं एक दिन पुलिस और पुरोहित दोनों को एक साथ
औरतों की अदालत में तलब करूँगा
और बीच की सारी अदालतों को मंसूख कर दूँगा
मैं उन दावों को भी मंसूख कर दूंगा
जो श्रीमानों ने औरतों और बच्चों के खिलाफ पेश किए हैं
मैं उन डिक्रियों को भी निरस्त कर दूंगा
जिन्हें लेकर फ़ौजें और तुलबा चलते हैं
मैं उन वसीयतों को खारिज कर दूंगा
जो दुर्बलों ने भुजबलों के नाम की होंगी.
मैं उन औरतों को
जो अपनी इच्छा से कुएं में कूदकर और चिता में जलकर मरी हैं
फिर से ज़िंदा करूँगा और उनके बयानात
दोबारा कलमबंद करूँगा
कि कहीं कुछ छूट तो नहीं गया?
कहीं कुछ बाक़ी तो नहीं रह गया?
कि कहीं कोई भूल तो नहीं हुई?
क्योंकि मैं उस औरत के बारे में जानता हूँ
जो अपने सात बित्ते की देह को एक बित्ते के आंगन में
ता-जिंदगी समोए रही और कभी बाहर झाँका तक नहीं
और जब बाहर निकली तो वह नहीं उसकी लाश निकली
जो खुले में पसर गयी है माँ मेदिनी की तरह
औरत की लाश धरती माता की तरह होती है
जो खुले में फैल जाती है थानों से लेकर अदालतों तक
मैं देख रहा हूँ कि जुल्म के सारे सबूतों को मिटाया जा रहा है
चंदन चर्चित मस्तक को उठाए हुए पुरोहित और तमगों से लैस
सीना फुलाए हुए सिपाही महाराज की जय बोल रहे हैं.
वे महाराज जो मर चुके हैं
महारानियाँ जो अपने सती होने का इंतजाम कर रही हैं
और जब महारानियाँ नहीं रहेंगी तो नौकरानियाँ क्या करेंगी?
इसलिए वे भी तैयारियाँ कर रही हैं.
मुझे महारानियों से ज़्यादा चिंता नौकरानियों की होती है
जिनके पति ज़िंदा हैं और रो रहे हैं
कितना ख़राब लगता है एक औरत को अपने रोते हुए पति को छोड़कर मरना
जबकि मर्दों को रोती हुई स्त्री को मारना भी बुरा नहीं लगता
औरतें रोती जाती हैं, मरद मारते जाते हैं
औरतें रोती हैं, मरद और मारते हैं
औरतें ख़ूब ज़ोर से रोती हैं
मरद इतनी जोर से मारते हैं कि वे मर जाती हैं
इतिहास में वह पहली औरत कौन थी जिसे सबसे पहले जलाया गया?
मैं नहीं जानता
लेकिन जो भी रही हो मेरी माँ रही होगी,
मेरी चिंता यह है कि भविष्य में वह आखिरी स्त्री कौन होगी
जिसे सबसे अंत में जलाया जाएगा?
मैं नहीं जानता
लेकिन जो भी होगी मेरी बेटी होगी
और यह मैं नहीं होने दूँगा ।।
.
5 - दुनिया
.

जब भी किसी
गरीब आदमी का अपमान करती है
ये तुम्हारी दुनिया,
तो मेरा जी करता है
कि मैं इस दुनिया को
उठाकर पटक दूं।’- रमाशंकर यादव विद्रोही
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6 - हक़
.
मेरा सर फोड़ दो ,
मेरी कमर तोड़ दो,
पर ये न कहो
कि अपना हक़ छोड़ दो
.
7 - कविता और लाठी
.
तुम मुझसे
हाले-दिल न पूछो ऐ दोस्त!
तुम मुझसे सीधे-सीधे तबियत की बात कहो।
और तबियत तो इस समय ये कह रही है कि
मौत के मुंह में लाठी ढकेल दूं,
या चींटी के मुह में आंटा गेर दूं।
और आप- आपका मुंह,
क्या चाहता है आली जनाब!
जाहिर है कि आप भूखे नहीं हैं,
आपको लाठी ही चाहिए,
तो क्या
आप मेरी कविता को सोंटा समझते है?
मेरी कविता वस्तुतः
लाठी ही है,
इसे लो और भांजो!
मगर ठहरो!
ये वो लाठी नहीं है जो
हर तरफ भंज जाती है,
ये सिर्फ उस तरफ भंजती है
जिधर मैं इसे प्रेरित करता हूं।
मसलन तुम इसे बड़ों के खिलाफ भांजोगे,
भंज जाएगी।
छोटों के खिलाफ भांजोगे,
न,
नहीं भंजेगी।
तुम इसे भगवान के खिलाफ भांजोगे,
भंज जाएगी।
लेकिन तुम इसे इंसान के खिलाफ भांजोगे,
न,
नहीं भंजेगी ।
कविता और लाठी में यही अंतर है।
.
8 - 'धरम'
.
मेरे गांव में लोहा लगते ही
टनटना उठता है सदियों पुराने पीतल का घंट,
चुप हो जाते हैं जातों के गीत,
खामोश हो जाती हैं आंगन बुहारती चूडि़यां,
अभी नहीं बना होता है धान, चावल,
हाथों से फिसल जाते हैं मूसल
और बेटे से छिपाया घी,
उधार का गुड़,
मेहमानों का अरवा,
चढ़ जाता है शंकर जी के लिंग पर।
एक शंख बजता है और
औढरदानी का बूढ़ा गण
एक डिबिया सिंदूर में
बना देता है
विधवाओं से लेकर कुंवारियों तक को सुहागन।
नहीं खत्म होता लुटिया भर गंगाजल,
बेबाक हो जाते हैं फटे हुए आंचल,
और कई गांठों में कसी हुई चवन्नियां।
मैं उनकी बात नहीं करता जो
पीपलों पर घडि़याल बजाते हैं
या बन जाते हैं नींव का पत्थर,
जिनकी हथेलियों पर टिका हुआ है
सदियों से ये लिंग,
ऐसे लिंग थापकों की माएं
खीर खाके बच्चे जनती हैं
और खड़ी कर देती है नरपुंगवों की पूरी ज़मात
मर्यादा पुरुषोत्तमों के वंशज
उजाड़ कर फेंक देते हैं शंबूकों का गांव
और जब नहीं चलता इससे भी काम
तो धर्म के मुताबिक
काट लेते हैं एकलव्यों का अंगूठा
और बना देते हैं उनके ही खिलाफ
तमाम झूठी दस्तखतें।
धर्म आखिर धर्म होता है
जो सूअरों को भगवान बना देता है,
चढ़ा देता है नागों के फन पर
गायों का थन,
धर्म की आज्ञा है कि लोग दबा रखें नाक
और महसूस करें कि भगवान गंदे में भी
गमकता है।
जिसने भी किया है संदेह
लग जाता है उसके पीछे जयंत वाला बाण,
और एक समझौते के तहत
हर अदालत बंद कर लेती है दरवाजा।
अदालतों के फैसले आदमी नहीं
पुरानी पोथियां करती हैं,
जिनमें दर्ज है पहले से ही
लंबे कुर्ते और छोटी-छोटी कमीजों
की दंड व्यवस्था।
तमाम छोटी-छोटी
थैलियों को उलटकर,
मेरे गांव में हर नवरात को
होता है महायज्ञ,
सुलग उठते हैं गोरु के गोबर से
निकाले दानों के साथ
तमाम हाथ,
नीम पर टांग दिया जाता है
लाल हिंडोल।
लेकिन भगवती को तो पसंद होती है
खाली तसलों की खनक,
बुझे हुए चूल्हे में ओढ़कर
फूटा हुआ तवा
मजे से सो रहती है,
खाली पतीलियों में डाल कर पांव
आंगन में सिसकती रहती हैं
टूटी चारपाइयां,
चैरे पे फूल आती हैं
लाल-लाल सोहारियां,
माया की माया,
दिखा देती है भरवाकर
बिना डोर के छलनी में पानी।
जिन्हें लाल सोहारियां नसीब हों
वे देवता होते हैं
और देवियां उनके घरों में पानी भरती हैं।
लग्न की रातों में
कुंआरियों के कंठ पर
चढ़ जाता है एक लाल पांव वाला
स्वर्णिम खड़ाऊं,
और एक मरा हुआ राजकुमार
बन जाता है सारे देश का दामाद
जिसको कानून के मुताबिक
दे दिया जाता है सीताओं की खरीद-फरोख़्त
का लाइसेंस।
सीताएं सफेद दाढि़यों में बांध दी जाती हैं
और धरम की किताबों में
घासें गर्भवती हो जाती हैं।
धरम देश से बड़ा है।
उससे भी बड़ा है धरम का निर्माता
जिसके कमजोर बाजुओं की रक्षा में
तराशकर गिरा देते हैं
पुरानी पोथियों में लिखे हुए हथियार
तमाम चट्टान तोड़ती छोटी-छोटी बाहें,
क्योंकि बाम्हन का बेटा
बूढ़े चमार के बलिदान पर जीता है।
भूसुरों के गांव में सारे बाशिंदे
किराएदार होते हैं
ऊसरों की तोड़ती आत्माएं
नरक में ढकेल दी जाती हैं
टूटती जमीनें गदरा कर दक्षिणा बन जाती हैं,
क्योंकि
जिनकी माताओं ने कभी पिसुआ ही नहीं पिया
उनके नाम भूपत, महीपत, श्रीपत नहीं हो सकते,
उनके नाम
सिर्फ बीपत हो सकते हैं।
धरम के मुताबिक उनको मिल सकता है
वैतरणी का रिजर्वेशन,
बशर्ते कि संकल्प दें अपनी बूढ़ी गाय
और खोज लाएं सवा रुपया कजऱ्,
ताकि गाय को घोड़ी बनाया जा सके।
किसान की गाय
पुरोहित की घोड़ी होती है।
और सबेरे ही सबेरे
जब ग्वालिनों के माल पर
बोलियां लगती हैं,
तमाम काले-काले पत्थर
दूध की बाल्टियों में छपकोरियां मारते हैं,
और तब तक रात को ही भींगी
जांघिए की उमस से
आंखें को तरोताजा करते हुए चरवाहे
खोल देते हैं ढोरों की मुद्धियां।
एक बाणी गाय का एक लोंदा गोबर
गांव को हल्दीघाटी बना देता है,
जिस पर टूट जाती हैं जाने
कितनी टोकरियां,
कच्ची रह जाती हैं ढेर सारी रोटियां,
जाने कब से चला आ रहा है
रोज का ये नया महाभारत
असल में हर महाभारत एक
नए महाभारत की गुंजाइश पे रुकता है,
जहां पर अंधों की जगह अवैधों की
जय बोल दी जाती है।
फाड़कर फेंक दी जाती हैं उन सब की
अर्जियां
जो विधाता का मेड़ तोड़ते हैं।
सुनता हूं एक आदमी का कान फांदकर
निकला था,
जिसके एवज में इसके बाप ने इसको कुछ हथियार दिए थे,
ये आदमी जेल की कोठरी के साथ
तैर गया था दरिया,
घोड़ों की पंूछे झाड़ते-झाड़ते
तराशकर गिरा दिया था राजवंशों का गौरव।
धर्म की भीख, ईमान की गरदन होती है मेरे दोस्त!
जिसको काट कर पोख्ता किए गए थे
सिंहासनों के पाए,
सदियां बीत जाती हैं,
सिंहासन टूट जाते हैं,
लेकिन बाकी रह जाती है खून की शिनाख़्त,
गवाहियां बेमानी बन जाती हैं
और मेरा गांव सदियों की जोत से वंचित हो जाता है
क्योंकि कागजात बताते हैं कि
विवादित भूमि राम-जानकी की थी।
.
9 - "हम गुलामी की अंतिम हदों तक लडेंगे"
.

लेकिन इंसान की कुछ और बात् है
जो तुमको पता है, वो हमको पता है
यहाँ पर कहाँ बेपता बात् है
ये पुल हिल रहा है तो क्यों हिल रहा है
तुमको पता है हमको पता है सबको पता है कि क्यों हिल रहा है
मगर दोस्तों वो भी इंसान थे जिनकी छाती पर ये पुल जमाया गया
अब वही लापता है
न तुमको पता है न हमको पता है न किसीको पता है कि क्यों लापता हैं
तो इस ज़माने में जिनका जमाना है भाई
उन्हीके जमाने में रहते हैं हम
उन्ही की हैं साँसें उन्ही की हैं कहते ,
उन्ही के खातिर दिन रात बहते हैं हम
ये उन्ही का हुकुम है जो मैं कह रहा हूं
उनके सम्मान में मैं कलम तोड़ दूं
ये उन्हीं का हुकुम है मेरे लिये और सबके लिये
कि मैं हक छोड़ दूं
तो लोग हक छोड़ दें पर मैं क्यों छोड़ दूं
मैं तो हक की लड़ाई का हमवार हूं
मैं बताऊँ कि मेरी कमर तोड़ दो, मेरा सर फोड दो
पर ये न कहो कि हक छोड़ दो
तो आप से कह रहा हूं अपनी तरह
अपनी दिक्कत को सबसे जिरह कर रहा
मुझको लगता है कि मैं गुनहगार हूं
क्योंकि रहता हूं मैं कैदियों कि तरह
मुझको लगता है मेरा वतन जेल है
ये वतन छोड़ कर अब कहाँ जाऊँगा
अब कहाँ जाऊँगा जब वतन जेल है
जब सभी कैद हैं तब कहाँ जाऊँगा
मैं तो सब कैदियों से यही कह रहा
आओ उनके हुकुम की उदूली करें
पर सब पूछते हैं कि वो कौन हैं और कहाँ रहता है
मैं बताऊँ कि वो एक जल्लाद है
वो वही है जो कहता है हक छोड़ दो
तुम यहाँ से वहाँ तक कहीं देख लो
गाँव को देख लो शहर को देख लो
अपना घर देख लो अपने को देख लो
इस हक़ की लड़ाई में तुम किस तरफ हो
आपसे कह रहा हूं अपनी तरह
कि मैं तो सताए हुओं की तरफ हूं
और जो भी सताए हुओं की तरफ है
उसको समझता हूं कि अपनी तरफ है
पर उनकी तरफ इसकी उलटी तरफ है
उधर उनकी तरफ आप मत जाइए
जाइए पर अकेले में मत जाइए
ऐसे जायेंगे तो आप फंस जायेंगे
आइये अब हमारी तरफ आइये
आइये इस तरफ की सही राह है
और सही क्या है
हम कौन हैं क्या ये भी नहीं ज्ञात है
हम कमेरों कि भी क्या कोई जाति है
हम कमाने का खाने का परचार ले
अपना परचम लिये अपना मेला लिये
आखरी फैसले के लिये जायेंगे
अपनी महफिल लिये अपना डेरा लिये
उधर उस तरफ जालिमों की तरफ
उनसे कहने कि गर्दन झुकाओ, चलो
और गुनाहों को अपने कबूलो चलो
दोस्तों उस घड़ी के लिये अब चलो
और अभी से चलो उस खुशी के लिये
जिसकी खातिर लड़ाई ये छेडी गयी
जो शुरू से अभी तक चली आ रही
और चली जायेगी अन्त से अन्त तक
हम गुलामी की अंतिम हदों तक लडेंगे

Photo Courtesy : Tehelka

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