Friday 5 February 2016

देश की इज्जत

जब देश में गरीबी, बेरोजगारी और असहिष्णुता अपने चरम पर हैं तो कुछ लोगों को ये चिंता सताये जा रही है कि दिल्ली के CM ने फ्रांस के राष्ट्रपति के सम्मान में दिये भोज में सैंडल क्यों पहनी । ये सवाल करने वाले लोग सिर्फ राजनैतिक वजह से कर रहे हैं । क्योंकि इनका राजनैतिक स्वार्थ न होता तो यही सवाल वो अपनी पार्टी के लीडर और रक्षामंत्री मनोहर पर्रिकर से भी करते । मैं तो सार्वजनिक रूप से स्वीकार भी करता हूँ कि देश का सौभाग्य है कि ये जमात अब जन्मी है वरना ये आज़ादी के समय होते तो बोलते गाँधीजी ने देश की नाक कटवा दी, इंग्लैंड के PM से सिर्फ धोती पहन के मिल आये या फिर शास्त्री जी के बारे में बोलते कि रूस में फ़टी हुई धोती को सिलाई करवाके पहनता है, देश की नाक कटवा दी ।
क्या इस जमात से हमें उल्टा सवाल नहीं करना चाहिए कि जिस नरेंद्र मोदी के पास सिर्फ 4700 रुपये हैं वो 10 लाख का सूट कहाँ से लाया ? दिन में 5 परिधान बदलता है तो वो कहाँ से लाता है ? महँगे ब्रांड के गॉगल्स खरीदने के पैसे कहाँ से लाता है क्योंकि उनकी सम्पति उस शोरूम में घुसने का ख्याल तक नहीं आने देती ।

खैर इस बहस को राजनैतिक न बनाते हुए सामाजिकता पर आते हैं । सबसे पहले तो उस इंजीनियर का धन्यवाद जिसने ये पहल की । यदि इसमें उनके राजनैतिक चटकारे को निकाल दें तो ये सच में बहुत अच्छी पहल है । इसे और व्यापक बनाया जाना चाहिये । हमें जितनी सहायता हो सके उतने जूते जरूरतमंद लोगों को पहनाने चाहिए । जिसकी जितनी श्रद्धा हो उतनी सहायता करें । देश की इज्जत इस बात पर निर्भर नहीं करती कि किसी दिल्ली प्रदेश का CM अरविन्द केजरीवाल क्या पहनता है, देश की इज्जत इस बात पर निर्भर करती है कि उस देश के लोग क्या पहनते हैं । तो जनाब ज्यादा न सही देश की इज्जत की सही बोली तो लगाइये ।

कुछ दिन पहले एक खबर देखी थी कि कहीं पर एक लड़की के पास पहनने को जूते नहीं थे फिर भी उसने नंगे पैर दौड़कर गोल्ड मैडल जीता । यहाँ गौर करने वाली बात ये है कि जरूरतमंद को हम कितना दे पाये आज 70 सालों में । सरकारें पूँजीपतियों की होती है आम आदमी की नहीं । और जब सरकारें निकम्मी हो तो अवाम को आगे आना पड़ता है और ये सही समय है जब अवाम को आगे आने की जरूरत है । हमें उस तबके को आगे लाना है जो इस व्यवस्था के अंतिम छोर पर खड़ा है । आज लोग  मर रहे हैं क्योंकि दुनिया का सबसे बडा लोकतंत्र उनको खाने के लिये रोटी, तन ढ़कने के लिये कपड़ा और रहने के लिए मकान नहीं दे पाया है । जब सरकारें एक व्यक्ति की प्राथमिक जरूरतें भी पूरी नहीं कर पाई है तो हमें बुलेट ट्रेन, विकास जैसी बातों को छोड़कर इन चीजों पर ध्यान देने की जरूरत ज्यादा है । सवाल ये नहीं है कि केंद्र में मैंने जिसे वोट दिया उसकी सरकार है कि नहीं । सवाल है क्या सरकार अपने कर्तव्यों को निभा रही है ? क्या उसमें अंतिम छोर पर खड़े व्यक्ति तक पहुँचने की इच्छाशक्ति है ? क्या वो नागरिक अधिकारों का सम्मान करती है ? यदि आपके सभी जवाब 'ना' में है तो अवाम को अब जागने की जरूरत है । लड़ने की जरूरत है । सोचने की जरूरत है कि उसका भला कौन कर सकता है ? जानने की जरूरत है कि उसके अधिकार क्या हैं ?


जागना अब खुद को है, अब कोई गाँधी, सुभाष, भगतसिंह, JP, लोहिया नहीं आने वाले हैं, आपको ही बनना है अपना लीडर, तो उठो, जागो और तब तक मत रुको जब तक कि मंजिल नसीब न हो जाये ।

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