Friday 17 July 2015

स्कूल चलें हम

" स्कूल चलें हम " सर्व शिक्षा अभियान की ये टैग लाइन देखी तो मुझे अपने स्कूल दिनों की याद आ गयी, जब मैंने पहली बार अपने फुँफेरे भाई गणेश के साथ स्कूल में पहली कक्षा में पैर धरा, नाम लिखवाया गया, और वही दिन हमारा जन्मदिन बन गया, क्योंकि मास्टर जन्मदिन पूछते तो गाँववाले बोल देते लिख दो आप अपने हिसाब से और इस तरह मास्टर जी तय करते कि हम इस दुनिया में कब आये, कभी 2 साल बाद और कभी पहले की उम्र लिखी जाती पर जन्मदिन देखके आज भी पता चल जाता है है कि हमने एडमिशन किस तारीख को लिया था ।
शुरू में तो बड़ा शौक था स्कूल जाने का, पर बाद में दिनों दिन घटता गया और महीने भर बाद तो स्कूल जेल जैसी लगनी लग गयी । फिर तो घरवाले छोड़के आते लेकिन हम आधी छुट्टी में कंटीली बाड़ कुदके निकल लेते गाँव के मैदान पर क्रिकेट खेलने को, वहाँ हमें बैटिंग और बॉलिंग तो कोई करने नहीं देता था, बस फील्डिंग करते थे । बड़ी उम्र के लड़के हमें सिर्फ इधर से उधर दौड़ाते थे और हम उसमें भी खुश होते । जब पैसों का मैच होता था तो हमें खाने को चॉकलेट मिल जाया करती थी । फिर जब ये शिकायत घर पहुँची कि हम भाग जाते हैं तो चाची ने बहुत मारा तो हमने भी स्कूल जाने से मना कर दिया । लेकिन घरवाले मारपीट के निकाल देते तो हम गाँव से बाहर चले जाते थे पर स्कूल नहीं । एक दिन वहाँ दादाजी ने देख लिया । फिर तो पिटाई का  क्या कहना ? अगले दिन घरवाले साथ गये पर बीच में ही भाग गए तो हाथ पैर पकड़के घसीटते हुये कुछ इस तरह से ले गए कि जैसे कसाई बकरे को ले जाता है ।
( नीचे दी गयी फोटो की तरह )



हमारी गाँव की सरकारी स्कूल, जो तब तक 5 वीं क्लास तक ही थी, में 2 मास्टर थे, एक हमारे गाँव के ही, रिश्ते में दादाजी, और दूसरे पास के गाँव थेथलिया के थे पूरण जी, बाय कास्ट मेघवाल थे फिर भी अन्य गाँवों के उलट गाँव वालों की श्रद्धा हमारे दादाजी के बजाय उनमें ज्यादा थी । हम उन्हें गुरजी कह के बुलाते थे । जब उनको गाँव वालों ने शिकायत की कि बच्चे चाय पीते हैं, बुरी आदत है, छुड़ाइये । तो अगले दिन सुबह प्राथना में गुरजी ने 2 दिन की मोहलत दी चाय छोड़ने की फिर पिटाई की धमकी के साथ डेडलाइन स्टार्ट । 2 दिन बाद फिर प्रार्थना में मिले तो कहा कि कल से जो भी उन्हें किसी के चाय पीने की सुचना देगा, उसे एक चॉकलेट मिलेगी । अब सब लालच में एक दूसरे की शिकायत करते, और कइयों के तो घरवाले ही गुरजी को बोल देते फिर जिनकी शिकायत मिलती उनको अलग छाँट के एक लड़के को वहाँ लगे नीम पर चढ़ाते और हरी लकड़ी से सबको प्रसाद मिलता और इस तरह एक हफ्ते में पुरे गाँव के बच्चों ने चाय छोड़ दी । इसके बाद हर लड़के को महीने में एक दिन गुरजी के लिये चाय बनाने को दूध लाने का फरमान सुनाया गया, और साथ ही एक बार काकड़ी और तरबूज भी लायेगा ।
ये तो हुई हमारे उद्धम की बातें पर उस टाइम सबसे अच्छी बात ये थी कि आज की तरह बड़ा स्कूल बैग नहीं ले जाना पड़ता था, सिर्फ एक पट्टी ले जाते और लिखने को चुने की चौक, जो हम रोजाना खा जाते थे । स्वाद ही इतना अच्छा लगता था कि कई बार तो दूसरों तक की खा जाते थे । हाँ, घर पर इस बाबत रोजाना पिटाई होती पर वो एक नशे की तरह था, जिसके सामने पिटाई कुछ नहीं थी । इसके अलावा पेन्सिल, रबर, स्याही वाला पेन, कॉपी - किताब के दर्शन तो 3rd क्लास में हुये जो आजकल LKG - UKG में ही बच्चों को मिल जाते हैं । कॉपी - किताब मिले बैग की जरूरत पड़ी जो घरवाले खुद घर पे ही कपड़े का बना देते थे, और कपड़ा होता था पापा, चाचा या दादा की पुरानी फ़टी हुई पैंट का । जिसको हम बड़े चाव से ले के जाते थे ।
इसके अलावा हमारे समय दूसरी अच्छी बात ये थी कि जब बच्चा ढंग से बोलने और समझने लग जाता तब घरवाले स्कूल भेजते थे मतलब जब हम अपना बचपन मजे से जी लेते थे यानि कि 6 से 8 साल के बीच की उम्र । मैं 6 साल साल की उम्र में स्कूल गया था तो लोगों ने कहा था कि अभी इतनी भी जल्दी क्या है ? साल भर और खेलने दो, फिर बाकि जिंदगी स्कूल, कॉलेज, घर - परिवार में ही तो बितनी है ।
लेकिन आज तो बच्चा ढंग से बोलना और चलना ही प्ले स्कूल में सीखता है । और फिर उस बेजान की पीठ पर  5 - 7 किलो वजन लाद के आर्मी के जवान की तरह टाई - बेल्ट और जूतों से लैस करके जिंदगी की लड़ाई जीतने को भेज दिया जाता है । पैसे और कैरियर के नाम पर बचपन की हत्या कर दी जाती है ।
ड्रेस के नाम पर हमारे पास थी सिर्फ एक नीला शर्ट,  खाकी निकर और चप्पल । शर्ट के तो महीने भर में ही बटन टूट जाते थे और खेलने से निकर का पिछवाङा फट जाता था, जिसमें से अंदर का सबकुछ साफ दिखाई देता था । फिर जब घरवालों को खेत से आराम मिलता तो उसकी सिलाई होती थी, स्कूल के निकर पे जो कारी लगाई जाती वो खाकी रंग की ही लगाई जाती थी वरना बाकि निकरों पर तो रंग - बिरंगी लगती थी, जिससे कई बार तो निकर के असली रंग को बता पाना मुश्किल हो जाता था। और इस काम की भी गाँव की कुछ एक्सपर्ट औरतें थी, जिनकी डिमांड ज्यादा रहती थी वरना घर का जुगाड़ तो था ही ।
2 - 3 जोड़ी चप्पलों की गुम होने के बाद घरवालों ने वो भी छुड़ा दी । 12 बजे, जब छुट्टी के बाद घर जाना होता तो बालू ( रेगिस्तानी इलाके में बालू रेत बहुत गर्म हो जाती है, लगभग 40℃ से 45℃ ) तपने लगती तो स्कूल के बाहर पड़े गोबर में या बाहर लगे हैंडपंप के कीचड़ में पैर भर लेते और फिर लगाते एक साँस दौड़ जो घर जाके ही खत्म होती । इसमें भी एक मोहल्ले वाले लड़कों में कॉम्पिटिशन होता, जिसमें धर्मेन्द्र ज्यादातर जीतता था । चाहे आपको ये अजीब लगे पर इसमें मजा आता था और आजकल की ऑटो पद्धति ( जिसमें बच्चों को ऑटो में ऐसे भरा जाता है जैसे कसाई बकरों को भरते हैं ) से कई गुना बेहतर और अच्छा था ।
बाकि यादें कभी और ....

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