Monday 1 May 2017

राजा महेंद्र प्रताप

राजा महेंद्र प्रताप नाम तो नहीं सुना होगा !
कैसे सुनेंगे जब इतिहास में किसी ने इन्हें जगह ही नहीं दी तो । चलिये फ्रंटियर या सीमांत गांधी का नाम तो सुना ही होगा, वहीं अफगानी जिसने भारत को आज़ाद करवाने में सहयोग दिया, लेकिन राजा महेंद्र प्रताप का नाम कितने लोग जानते हैं, एक भी नहीं, इनके बारे जितना लिखूँ कम पड़ेगा जैसे इस इंटरनेशनल क्रांतिकारी का सही मायनों में मूल्यांकन किया जाए तो गांधी और बोस के बराबर का है, महेंद्र प्रताप वो व्यक्ति है जिसने देश के भावी पीएम को चुनावों में धूल चटा दी, ये वो क्रांतिकारी है जिसने 28 साल पहले वो काम कर दिया, जो नेताजी बोस ने 1943 में आकर किया। ये वो व्यक्ति है, जिसे गांधी की तरह ही नोबेल पुरस्कार के लिए नॉमिनेट किया गया और उन दोनों ही साल नोबेल पुरस्कार का ऐलान नहीं हुआ और पुरस्कार राशि स्पेशल फंड में बांट दी गई ।

चलो शुरू से शुरू करते है, महेन्द्र प्रताप का जन्म 1 दिसम्बर 1886 को हुआ । मुरसान के राजा घनष्यामसिंह के तीसरे पुत्र थे महेन्द्र प्रताप, जिन्हें बाद में हाथरस के राजा हरिनारायण सिंह ने पुत्र न होने की वजह से इन्हें गोद ले लिया और हाथरस राज्य के वृन्दावन स्थित विशाल महल में ही महेन्द्र प्रताप का षैशव काल बीता। बड़ी सुख सुविधाएँ मिली । फिर उनकी पढ़ाई मोहम्मडन एंग्लो ओरियंटल कॉलेज, अलीगढ़ में हुई, जो आज अलीगढ़ मुस्लिम यूनीवर्सिटी के तौर पर जाना जाता है। इन्होंने ने B.A. में अड्मिशन तो लिया पर पारिवारिक कारणों से अंतिम वर्ष की परीक्षा नहीं दे सके ।
इसके बाद 1902 में जिंद रियासत के राजा की राजकुमारी बलबीर कौर से संगरूर में बड़ी धूमधाम से विवाह हुआ। राजशाही ठाठ बाठ ऐसे कि जब कभी महेन्द्र प्रताप ससुराल जाते तो उन्हें 11 तोपों की सलामी दी जाती और उस समय के सभी बड़े अंग्रेज अफसर तक स्टेशन पर स्वागत करने आते ।
लेकिन महेंद्र प्रताप शुरू से ही आम शाही नवयुवकों की तरह नहीं थे। उनके पास मौका था कि वो भी राजाओं के बने संघ में शामिल होकर अंग्रेजों की दी जाने वाली सभी सुख सुविधाओं का आनंद उठाते और खुश रहते। लेकिन वो उनमें से नहीं थे, वो जन्म से ही बागी थे । 1905 के स्वदेशी आंदोलन से वो इतना प्रभावित हुए कि सबसे पहली बगावत 1906 में  अपने ससुर और जिंद के महाराजा के खिलाफ ही कर दी, उनकी इच्छा के विरुद्ध महेन्द्र प्रताप ने कलकत्ता ने भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के अधिवेशन में भाग लिया । उसके बाद 1909 में वृन्दावन में प्रेम महाविद्यालय की स्थापना की जो तकनीकी शिक्षा के लिए भारत में प्रथम केन्द्र था। इसके उद्धाटन समारोह में मदनमोहन मालवीय भी उपस्थित रहे । महेंद्र प्रताप ने अपने अधीन के पाँच गाँव, वृन्दावन का राजमहल और चल संपत्ति दान में देकर कॉलेज संचालन के लिये एक ट्रस्ट भी बनाया । इसी साल पुत्री रत्न भक्ति की प्राप्ति हुई ।
1911 में वृन्दावन में ही एक विशाल फल उद्यान, जो 80 एकड़ में था, को आर्य प्रतिनिधि सभा उत्तर प्रदेश को दान में दे दिया। जिसमें आर्य समाज गुरुकुल और राष्ट्रीय विश्वविद्यालय है ।
फिर साल 1913 में इन्हें पुत्र रत्न प्रेम प्रताप की प्राप्ति हुई ।
महेंद्र प्रताप देहरादून से 'निर्बल सेवक' नामक समाचार-पत्र भी निकालते थे, जिसमें जर्मनी के पक्ष में लिखे लेख के कारण उन पर 500 रुपये का दण्ड किया गया जिसे उन्होंने भर तो दिया लेकिन देश की आजादी की उनकी इच्छा और बढ़ गयी ।
प्रथम विश्वयुद्ध का लाभ उठाकर भारत को आजादी दिलवाने के उद्देश्य से वे जर्मनी गए, जहाँ जर्मन शासक काइजर से मुलाकात की और भारत की आज़ादी में सहायता का वचन लेकर आॅस्ट्रिया, हंगरी, बुल्गारिया और तुर्की होते हुए 6 सितंबर, 1915 को अफगानिस्तान पहुंच गये। राजधानी काबुल में उन्होंने वहां के बादशाह अमीर हबीबुल्ला खान से भेंट की । अफगानिस्तान में ‘आजाद हिन्द सरकार’ की स्थापना के लिये सहमत हो गया । अंततः 29 अक्तूबर 1915 को अस्थाई "आजाद हिन्द सरकार" अस्तित्व मे आ गई । वहीं से अपने 28 वें जन्मदिन पर 1 दिसम्बर 1915 को काबुल से भारत के लिए अस्थाई सरकार की घोषणा की जिसके स्वयं राष्ट्रपति तथा  मौलाना बरकतुल्ला खाँ प्रधानमंत्री बने ।
तत्कालीन भारत सरकार के पधादिकारी : -
1 राजा महेंद्र प्रताप राष्ट्रपति
2 मौलाना बक्र तुला खां प्रधानमंत्री
3 मौलाना उबेदुल्ला खां ग्रहमंत्री एवं प्रचार मंत्री
4 मौलाना वशीर अहमद युद्ध मंत्री
5 चम्पक रसन पिलेई विदेश मंत्री
6 अली जकरिया   संचार मंत्री
7 अब्दुल बारी
8 अलाह नवाज
9 खुदा बख्स
10 मोहम्द अली
11 रहमत अली
12 जफर हसन
13 शमसेर सिंह
14 सरदार हरनाम सिंह
15 गुज्जर सिंह
16 अब्दुल अजीज

सबसे पहले इस सरकार को संधी पत्र पर अफगान बादशाह ने हस्ताक्षर करके मान्यता प्रदान की
अफगान सरकार की तरफ से वहाँ के बादशाह हाबिबुला खां ने तो भारत की और से राजा महेंद्र प्रताप ने हस्ताक्षर किए । जर्मनी, अफगानिस्तान और तुर्की सहित इंग्लैण्ड से शत्रुता रखने वाले कुछ और देशों ने इसे मान्यता दे दी। अब यह सरकार अधिकाधिक रूप से अन्य देशों से भारत की स्वतंत्रता के लिये सहायता प्राप्त कर सकती थी । इसी सरकार के अंतर्गत "आजाद हिन्द फौज" का गठन भी किया गया जिसमेँ जर्मनी और तुर्की सरकार द्वारा बन्दी बनाये भारतीय सैनिक, सीमावर्ती पठानोँ और कबीलाईयोँ को लेकर छह हजार सैनिक भर्ती किये गये । आजाद हिन्द फौज ने अंग्रेजी अधिकार वाले भारतीय क्षेत्रोँ को आजाद कराने के लिये अंग्रेज सेना पर हमला बोल दिया पर  विश्व युद्ध में जर्मन-तुर्की गठजोड़ हारने लगा, इससे अंग्रेजों का हौसला बढ़ गया और उन्होंने पूरी ताकत से आजाद हिन्द फौज पर आक्रमण कर दिया, अंततः विफलता का सामना करना पडा । फिर लेनिन ने उनके क्रांतिकारों विचारों से प्रभावित होकर उन्हें रूस मिलने बुलाया और महेंद्र प्रताप को अपनी एक किताब उपहार में दी, जिसे वो पहले ही पढ़ चुके थे, टॉलस्टॉयवाद । वहाँ से 1925 में जापान पहुंच गये । जापान में उस समय प्रसिद्ध क्रांतिकारी रासबिहारी बोस और आनंद मोहन सहाय भारत की आजादी के लिये प्रयत्न कर रहे थे। ओसाका में राजा महेन्द्र प्रताप की दोनों क्रांतिकारियों से भेंट हुई तथा भविष्य की योजनाओं पर विचार हुआ। उधर अंग्रेजों के दबाव में जापान सरकार ने महेंद्र प्रताप को जापान छोड़ देने को कहा। जापान से वे मौलाना बरकतुल्ला के साथ अमरीका पहुंच गये।







1 comment:

डॉ कलाम को श्रद्धांजलि

डॉ. एपीजे अब्दुल कलाम (Avul Pakir Jainulabdeen Abdul Kalam ) का जन्म 15 October 1931 को तमिलनाडु के Rameswaram में हुआ । इन्होंने 1960 ...