बादशाह बोला शाह से
"तैयार करो एक ऐसी फौज,
जो ...
हम कहे तो चले,
हम कहे तो रुके,
हम कहें तो बोले,
हम कहे तो खामोश,
हम कहें तो मारे,
हम कहें तो बख्शे"
शाह ने फरमाया
"हुजूर,
गुस्ताखी के लिये मुआफी,
पर ..
एक दिक्कत है,
फौज में होंगे लोग,
और
लोग वैसा ही करे जैसा हम कहे
ये जरूरी नहीं,
क्योंकि...
वाे सोच सकते है,
इसलिये फौज में जानवर रखो, इंसान नहीं "
शाह ने आगे फरमाया
"जानवर भरने से अच्छा,
इन्ही लोगों में भर दो - भूख/गरीबी/डर और अंधविश्वास
और मिला दो थौङा सा जाति, धर्म का बारूद,
फिर शोषण का दु:ख और मौत का भय होगा,
फिर दिलों में बदले की आग और इन्सानियत की राख होगी"
( यह कविता आज पाश के जन्मदिन पर लिखी थी । इसमें पहले 2 पैरा मेरे लिखे है और अंतिम पैरा साथी सुमित ने लिखा है )
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