कुछ साथी लगातार सवाल कर रहे है कि सरकार भगतसिंह को और भगतसिंह के लिखे हुये को पाठ्यक्रम में शामिल क्यों नहीं करती ? इसके पीछे वो तर्क देते है कि भगतसिंह की स्वीकार्यता गाँधी, पटेल, सुभाषचंद्र बोस, नेहरू, इंदिरा, जयप्रकाश नारायण के बराबर या ज्यादा ही रही है तो लोगों को पता लगने देना चाहिये कि भगतसिंह कौन थे और उनके विचार क्या थे ?
साथियों, आपके इस सुझाव से 100% सहमत हूँ । अकेला मैं ही नहीं देश की अधिकांश आबादी सहमत होगी । आज भगतसिंह का नाम तो बड़ा बन गया है पर उनके विचार बड़े नहीं बन पाए । इसका परिणाम ये हुआ कि भगतसिंह के विरोधी विचारों वाले लोग भी भगतसिंह के नाम पर ठेकेदारी करने लग गए ।
भगतसिंह का एक लेख था, " मैं नास्तिक क्यों ? " जिसमें उन्होंने बताया कि वो नास्तिक क्यों बने, कैसे बने, ईश्वरीय सत्ता को क्यो नकारा, ईश्वर के नाम पर कैसे लोगों को बहकाया जाता है, कैसे धर्म के नाम पर मानसिक विकार उत्पन्न किये जाते है, अध्यात्म, धर्म से होते हुये कैसे एक धंधा बन गया है आदि आदि । उपरोक्त सवालों के जवाब उन्होंने आज से करीब 90 साल पहले दे दिए थे पर आज भी धर्म की समस्या ज्यों की त्यों मुँह बाये खड़ी है या यूँ कहूँ कि उससे ज्यादा विकृत अवस्था में है । और आज जो भगतसिंह के नाम पर संगठन बने है वो उनकी इस शिक्षा को पढ़े बिना हर वो काम कर रहे है जो भगतसिंह ने करने को मना किया था, इसमें सबसे बड़ा नाम भगतसिंह क्रांति सेना का है जो धर्म की राजनीति का बढ़ चढ़कर समर्थन करती है ।
भगतसिंह का एक लेख था, " मैं नास्तिक क्यों ? " जिसमें उन्होंने बताया कि वो नास्तिक क्यों बने, कैसे बने, ईश्वरीय सत्ता को क्यो नकारा, ईश्वर के नाम पर कैसे लोगों को बहकाया जाता है, कैसे धर्म के नाम पर मानसिक विकार उत्पन्न किये जाते है, अध्यात्म, धर्म से होते हुये कैसे एक धंधा बन गया है आदि आदि । उपरोक्त सवालों के जवाब उन्होंने आज से करीब 90 साल पहले दे दिए थे पर आज भी धर्म की समस्या ज्यों की त्यों मुँह बाये खड़ी है या यूँ कहूँ कि उससे ज्यादा विकृत अवस्था में है । और आज जो भगतसिंह के नाम पर संगठन बने है वो उनकी इस शिक्षा को पढ़े बिना हर वो काम कर रहे है जो भगतसिंह ने करने को मना किया था, इसमें सबसे बड़ा नाम भगतसिंह क्रांति सेना का है जो धर्म की राजनीति का बढ़ चढ़कर समर्थन करती है ।
वहीं दूसरी ओर मान लो यदि आज स्कूली पाठ्यक्रम में "मैं नास्तिक क्यों ?" पढ़ाया जाए तो सबसे बड़ा सवाल खड़ा होगा अल सुबह होने वाली ईश्वरीय/सरस्वती वंदना पर । इस ब्राह्मणवादी शिक्षा व्यवस्था को मजबूत करने वाली सबसे महत्वपूर्ण कड़ी को ही जब छात्र नकार देगा तो धार्मिक दुकानें हिलना लाजिमी है ।
भगतसिंह ने छात्रों और युवाओं को सम्बोधित करते हुए 2 पत्र लिखे, जिसमें पहला था 1928 में कीर्ति में छपा " विद्यार्थी और राजनीति ", जिसमें वो कहते है "जिन नौजवानों को कल देश की बागडोर हाथ में लेनी है, उन्हें आज अक्ल के अन्धे बनाने की कोशिश की जा रही है। इससे जो परिणाम निकलेगा वह हमें खुद ही समझ लेना चाहिए। यह हम मानते हैं कि विद्यार्थियों का मुख्य काम पढ़ाई करना है, उन्हें अपना पूरा ध्यान उस ओर लगा देना चाहिए लेकिन क्या देश की परिस्थितियों का ज्ञान और उनके सुधार सोचने की योग्यता पैदा करना उस शिक्षा में शामिल नहीं?यदि नहीं तो हम उस शिक्षा को भी निकम्मी समझते हैं, जो सिर्फ क्लर्की करने के लिए ही हासिल की जाये। ऐसी शिक्षा की जरूरत ही क्या है? कुछ ज्यादा चालाक आदमी यह कहते हैं- “काका तुम पोलिटिक्स के अनुसार पढ़ो और सोचो जरूर, लेकिन कोई व्यावहारिक हिस्सा न लो। तुम अधिक योग्य होकर देश के लिए फायदेमन्द साबित होगे।”
बात बड़ी सुन्दर लगती है, लेकिन हम इसे भी रद्द करते हैं,क्योंकि यह भी सिर्फ ऊपरी बात है। "
बात बड़ी सुन्दर लगती है, लेकिन हम इसे भी रद्द करते हैं,क्योंकि यह भी सिर्फ ऊपरी बात है। "
और दूसरा लेख ( सन्देश ) था 1929 में पंजाब छात्रसंघ में पढ़कर सुनाया गया, जिसकी अध्यक्षता सुभाष चन्द्र बोस ने की थी, वो लिखते है कि
" इस समय हम नौजवानों से यह नहीं कह सकते कि वे बम और पिस्तौल उठाएँ। आज विद्यार्थियों के सामने इससे भी अधिक महत्वपूर्ण काम है। आनेवाले लाहौर अधिवेशन में कांग्रे़स देश की आज़ादी की लड़ाई के लिए जबरदस्त लड़ाई की घोषणा करने वाली है। राष्ट्रीय इतिहास के इन कठिन क्षणों में नौजवानों के कन्धों पर बहुत बड़ी जिम्मेदारी आ पड़ेगी। यह सच है कि स्वतन्त्रता के इस युद्ध में अग्रिम मोर्चों पर विद्यार्थियों ने मौत से टक्कर ली है। क्या परीक्षा की इस घड़ी में वे उसी प्रकार की दृढ़ता और आत्मविश्वास का परिचय देने से हिचकिचाएँगे? नौजवानों को क्रांति का यह सन्देश देश के कोने-कोने में पहुँचाना है, फैक्टरी कारखानों के क्षेत्रों में, गंदी बस्तियों और गाँवों की जर्जर झोपड़ियों में रहने वाले करोड़ों लोगों में इस क्रांति की अलख जगानी है, जिससे आजादी आएगी और तब एक मनुष्य द्वारा दूसरे मनुष्य का शोषण असम्भव हो जाएगा। पंजाब वैसे ही राजनीतिक तौर पर पिछड़ा हुआ माना जाता है। इसकी भी जिम्मेदारी युवा वर्ग पर ही है। आज वे देश के प्रति अपनी असीम श्रद्धा और शहीद यतीन्द्रनाथ दास के महान बलिदान से प्रेरणा लेकर यह सिद्ध कर दें कि स्वतन्त्रता के इस संघर्ष में वे दृढ़ता से टक्कर ले सकते हैं। "
अब वापस लौटते है भगतसिंह को पाठ्यक्रम में शामिल करने के मुद्दे पर, इसके लिये हमें सबसे पहले भगतसिंह के विद्यार्थियों के नाम लिखे उपरोक्त तीनों पत्र पढ़ने बहुत जरूरी है । इन पत्रों को पढ़ने के बाद एक चीज साफ साफ समझ आती है, वो है जुल्म न सहने और हक़ की लड़ाई का संदेश । अब आप सोचिये कि भगतसिंह को यदि पाठ्यक्रम में शामिल किया तो
- ब्राह्मणवादी व्यवस्था के खिलाफ खड़े होंगे
- छात्र अपने अधिकार जान जाएंगे
- राजनीतिक रूप से परिपक्व हो जायेंगे
- हुक्मरानों से सवाल करेंगे
- ब्राह्मणवादी व्यवस्था के खिलाफ खड़े होंगे
- छात्र अपने अधिकार जान जाएंगे
- राजनीतिक रूप से परिपक्व हो जायेंगे
- हुक्मरानों से सवाल करेंगे
और यदि ये सब हुआ तो जाहिर सी बात शोषक वर्ग की जड़ें हिल जायेगी और जल्द ही उनकी सत्ता के खिलाफ जनक्रांति हो जायेगी जिसमें सत्ता जनता के हाथों में होगी और शोषक या तो मार दिए जाएंगे या काल कोठरी में भेज दिए जाएंगे, उनकी पूँजी लोकहित में राष्ट्रीय संपदा घोषित कर दी जायेगी ।
तो अब आप ही बताइये कि कौन अपने जमे जमाये साम्राज्यों के खिलाफ किसी को खड़ा होने देना चाहेगा ? इसलिये हमें ये उम्मीद करनी छोड़ देनी चाहिये कि सत्तासीन भगतसिंह की बातें आमजन तक पहुँचने देंगे, क्योंकि भगतसिंह की शिक्षा, व्यवस्था में फैले जुल्म और अन्याय के खिलाफ बागी तैयार करती है ।
बहुत बेहतरीन पूनिया जी । उम्मीद है आप ऐसे ही बागी बोल बोलते रहें और हम जैसो को प्रेरित करते रहें । लाल सलाम कामरेड ।
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