Friday, 27 July 2018

डॉ कलाम को श्रद्धांजलि


डॉ. एपीजे अब्दुल कलाम (Avul Pakir Jainulabdeen Abdul Kalam ) का जन्म 15 October 1931 को तमिलनाडु के Rameswaram में हुआ । इन्होंने 1960 में Madras Institute of Technology से एरोस्पेस इंजीनियरिंग में पढ़ाई की । इंजीनियर बनने के बाद डॉ. कलाम का Defence Research and Development Organisation  (DRDO) में सिलेक्शन हो गया । वहाँ सेवा करने के पश्चात Indian Space Research Organisation (ISRO) में भी इन्होंने सेवा दी ।
इन्होंने DRDO में रहते हुए देश को रक्षा क्षेत्र में आत्मनिर्भर बनाने के लिये मिसाइलों का निर्माण किया जिनकी वजह से इन्हें " मिसाइल मैन " नाम दिया गया ।

फिर 1998 में पोखरण में किये गए परमाणु परीक्षण में भी इनका महत्वपूर्ण योगदान रहा । 25 जुलाई 2002 को डॉ. कलाम देश के 11वें राष्ट्रपति चुने गए । इस पद पर इन्होंने 25 जुलाई 2007 तक सेवा दी । इस दौरान डॉ. कलाम ने राष्ट्रपति भवन को आम लोगों का भवन बनाया ।
27 जुलाई 2015 को Indian Institute of Management, Shillong में लेक्चरर के दौरान Cardiac Arrest की वजह से 83 वर्ष की उम्र में निधन हो गया । एक शिक्षक के लिये अंतिम पल भी यदि पढ़ाते हुए बीते तो यह उसके लिये सौभाग्य की बात है ।
डॉ. कलाम को जीवन मे 40 यूनिवर्सिटी की तरफ से 7 डॉक्टरेट की मानद उपाधियां दी गयी । इसके अलावा इन्हें निम्न सम्मान भी प्राप्त हुए :-
1. 1997 में भारत रत्न से सम्मानित ।
2. 1981 में पद्म भूषण अवार्ड ।
3. 1982 में अन्ना यूनिवर्सिटी ने उन्हें डॉक्टर की उपाधि से सम्मानित किया ।
4. 1990 में पद्म विभूषण अवार्ड ।
5. 1999 में डॉ. कलाम भारत सरकार के प्रमुख वैज्ञानिक सलाहकार बने ।
6. 1962 में"भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन (इसरो) से जुड़े ।
7. 2002 में राष्ट्रपति बने ।
इसके अलावा डॉ. कलाम ने बहुत सारी किताबें भी लिखी, जो निम्न है -
1. India 2020: A Vision for the New Millennium
2. A Manifesto for Change: A Sequel to India 2020,
3. Wings of Fire: An Autobiography
4. The Luminous Sparks
5. Mission India, Inspiring Thoughts
6. Indomitable Spirit,
7.Envisioning an Empowered Nation
8. You Are Born To Blossom : Take My Journey Beyond
9. Turning Points: A journey through challenges
10. Target 3 Billion
11. My Journey : Transforming Dreams into Actions
12. Forge your Future : Candid, Forthright, Inspiring
13. Reignited: Scientific Pathways to a Brighter Future
14. Transcendence: My Spiritual Experiences with Pramukh Swamiji
15. Advantage India: From Challenge to Opportunity
पूर्व प्रथम नागरिक, भारत रत्न, पद्म विभूषण, वैज्ञानिक,  मिसाइलमैन, शिक्षक, बच्चों के प्रिय नेता डॉ. ए.पी.जे. अब्दुल कलाम को उनकी पुण्यतिथि पर शत् शत् नमन #RIPkalam

Wednesday, 25 July 2018

Bandit Queen : फूलनदेवी


आपको फूलन देवी याद है ? नहीं न !
चलिये मैं बताता हूँ । उसके बारे में सबसे प्रचलित शब्द है "बैंडिट क्वीन" या चंबल की रानी ।
यह कहानी एक ऐसी लड़की की है जिसने ताजिंदगी संघर्ष किया, और उस संघर्ष में जीती भी । पर आज ही की तारीख को 17 साल पहले एक जंग हार गई,  25 जुलाई 2001 को शेरसिंह राणा नाम के स्वयंभू उच्च जाति के रक्षक ने इनकी गोली मारकर हत्या कर दी ।
चलिये अब आपको थोड़ा पीछे ले चलता हूँ, 10 अगस्त 1963 को यूपी में जालौन के 'घूरा का पुरवा' गांव में फूलन का जन्म हुआ था । लाख विरोध के बावजूद 11 साल की उम्र में फूलन देवी को गांव से बाहर भेजने के लिए उसके चाचा मायादिन ने फूलन की शादी एक अधेड़ आदमी पुट्टी लाल से करवा दी । और 11 साल की छोटी सी उम्र में फूलन ब्याहकर फूलन देवी बन चुकी थी । यहीं से फूलन के संघर्ष के दिन शुरू हो गए थे । शादी के समय फूलन नाबालिग थी पर पति ने अपनी शारीरिक भूख मिटाने के लिये अबला फूलन की जिंदगी नर्क बना दी । ससुराल में फूलन से उसका पति रोज बलात्कार करता, इससे फूलन बीमार पड़ गयी और अपने पीहर लौट आई । यहां उसने अपने परिवार के साथ मजदूरी करना शुरू कर दिया। यहीं से फूलन के विद्रोही स्वभाव का पहला नजारा देखने को मिला । एक बार एक आदमी ने फूलन को मकान बनाने में की गई मजदूरी का मेहनताना देने से मना कर दिया, तो उसने रात को उस आदमी के मकान को ही कचरे के ढेर में बदल दिया ।
पीछे से उसके पति ने दूसरी शादी कर ली तो फूलन ने भी सामाजिक तानों से परेशान होकर डाकु बाबू गुज्जर के गिरोह में शामिल हो गयी । गिरोह के सरदार बाबू गुज्जर और दूसरे डाकू विक्रम मल्लाह दोनों फूलन को पसंद करते थे पर फूलन विक्रम मल्लाह को पसंद करती थी । इस बात पर उन दोनों में तनातनी हुई जिसमें विक्रम मल्लाह, बाबू गुज्जर को मारकर गिरोह का सरदार बन गया और फूलन ने विक्रम के साथ एक बार फिर से गृहस्थ जीवन की शुरुआत की ।
फूलन अपने घावों को भूलने वालों में से नहीं थी, इसलिये उसने फैसला किया कि उसका जीवन नारकीय बनाने वाले अपने पहले पति से बदला लेगी और चल पड़ी अपने गिरोह के साथ अपने पुराने ससुराल । वहाँ पहुँचकर उसने अपने पुराने पति से मिले घावों का बदला लिया ।
इसी दौरान ठाकुर गिरोह के सरगना श्रीराम ठाकुर और लाला ठाकुर, जो बाबू गुज्जर से हमदर्दी रखते थे, इस बात से नाराज थे कि कैसे कोई छोटी जाति का आदमी उस गिरोह का सरदार बन गया । ठाकुर गिरोह के नजर में इस पूरे वाकये की जिम्मेदार सिर्फ और सिर्फ फूलन थी ।
इसी बीच एक दिन ठाकुर गिरोह ने मौका पाकर रात को सोते हुए विक्रम मल्‍लाह को मारकर फूलन को उठा कर बेहमई गाँव ले जाया गया ।
वहाँ कुसुम ठाकुर नामक औरत ने उसके कपड़े फाड़े और गाँव के आदमियों के सामने नंगा छोड़ दिया । ठाकुर गिरोह उसे नग्न अवस्था में रस्सियों से बांधकर पूरे बेहमई गांव में नंगा घुमाया । उसके बाद सबसे पहले ठाकुर गिरोह के सरगना श्रीराम ठाकुर ने उसके साथ बलात्कार किया । फिर बारी-बारी से गांव के लोगों ने उसकी इज्जत लूटी, उसे बालों से पकड़कर खींचा, लाठियों से पीटा । करीब दो सप्‍ताह से अधिक समय तक फूलन को नग्‍न अवस्‍था में बेहमई में बंधक बनाकर रखा । इस दौरान उसके साथ रोज तब तक सामूहिक बलात्कार किया जाता जब तक वह बेहोश नहीं हो जाती । वहाँ से छूटने के बाद फूलन न्याय के लिए दर-दर भटकती रही लेकिन कहीं से न्याय न मिलने पर फूलन ने बंदूक उठाने का फैसला किया और वो डकैत बन गई ।
14 फरवरी, 1981 को फूलन फिर अपने घावों को भरने बहमई गांव लौटी, और वहाँ उसे 2 ठाकुर मिले जिन्होंने उसके साथ बलात्कार किया था । उसने उन दोनों समेत 22 ठाकुरों को गांव के बीच में एक साथ खड़ा कर गोलियों से भून दिया ।
उस समय फूलन की उम्र करीब 18 साल की थी ।
इस पूरे प्रकरण के बाद से फूलन "बैंडिट क्वीन" के नाम से पूरे देश की मीडिया में छा गयी ।
ठाकुरों से उसकी दुश्मनी थी इसलिए उन्हें अपनी जान का ख़तरा हमेशा महसूस होता था । चंबल के बीहड़ों में पुलिस और ठाकुरों से बचते-बचते वह थक गईं थीं इसलिए तात्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की ओर से 1983 में फूलन देवी से सरेंडर करने की सलाह को फूलन ने मान लिया । पर आत्मसमर्पण को लेकर फूलन में मन में शक था कि यूपी पुलिस आत्मसमर्पण के बाद मेरी व मेरे साथियों की हत्या कर देगी इसलिए उन्होंने आत्मसमर्पण से पहले 3 प्रमुख शर्तें रखी -
1. मध्य प्रदेश सरकार के सामने हथियार डालेगी ।
2. उसे या उसके सभी साथियों को मृत्युदंड नहीं देने की थी ।
3. उसके गैंग के सभी लोगों को 8 साल से अधिक की सजा न दी जाए ।
सरकार की पहल पर भिंड के एसपी राजेंद्र चतुर्वेदी और फूलन में कई दौर की बात चली और सभी शर्तें मानने के बाद फूलन आत्मसमर्पण को राजी हो गई । मध्य प्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री अर्जुन सिंह के सामने फूलन देवी ने एक समारोह में हथियार डाले और उस समय उन पर 22 हत्या, 30 डकैती और 18 अपहरण के मामले थे । उस समय फूलन की एक झलक पाने के लिए हज़ारों लोगों की भीड़ जमा थी ।
फूलन को बिना सज़ा सुने 11 साल जेल में रहना पड़ा । मुलायम सिंह की सरकार ने 1993 में उन पर लगे सारे आरोप वापस लेने का फैसला किया और 1994 में फूलन जेल से छूट गई । जेल से छूटने के बाद उम्मेद सिंह से फूलन ने शादी की और राजनीति में कदम रखा ।
1996 में फूलन देवी ने मिर्जापुर से समाजवादी पार्टी से चुनाव लड़ा और जीतकर सांसद बनी । चम्बल में घूमने वाली फूलन अब दिल्ली के अशोका रोड के शानदार बंगले नम्बर 44 में रहने लगी । 1998 के आम चुनावों में हार गई पर 1 साल बाद 1999 में फिर वहीं से जीत गईं ।
25 जुलाई 2001 को शेरसिंह राणा नाम का बैंक चोर विक्की, शेखर, राजबीर, उमा कश्यप, उसके पति विजय कुमार कश्यप के साथ दो मारूति कारों से दिल्ली आया और फूलन के घर के बाहर फूलन के संसद से घर लौटने का इंतजार कर रहा था । फूलन के गाड़ी से उतरते ही राणा ने उनके सिर में गोली मारी जबकि विक्की ने उनके पेट में कई गोलियां उतार दी ।
पुलिस के आरोप-पत्र के मुताबिक, बाद में राणा ने जमीन पर गिर चुकी फूलन पर अंधाधुंध गोलियों की बरसात कर दी । और उस दिन फूलन अपने जिंदगी के संघर्ष से हार गई ।
फूलन किसी के लिये कानून की गुनाहगार थी तो कइयों का लिये जिंदगी की हर तकलीफ से लड़कर जीने का जज्बा । फूलन कुछ भी रही हो पर उसने कभी झुककर जीना नहीं सीखा । और उन लाखों बलात्कार पीड़िताओं के लिये एक सीख थी जो बलात्कार के बाद खुद को जमाने के सामने असहाय मान लेती है । जिंदगी में इतनी कठिनाइयों के बाद भी खुलकर जीने का सलीका किसी से सीख सकते है तो वो सिर्फ फूलन देवी ही है ।

Monday, 15 January 2018

पद्मावती के जौहर से सुलगता देश

हफ्ते भर पहले खबर आई कि CM वसुंधरा राजे सिंधिया ने राजस्थान में पद्मावत को रिलीज करने पर प्रतिबंध लगा दिया । फिर इसका अनुसरण करते हुए गुजरात CM विजय रुपाणी ने गुजरात मे और शिवराज सिंह चौहान ने MP में इसे प्रतिबंधित कर दिया ।
मेरे मन में फिल्म को लेकर "क्यों ?" की शक्ल में बहुत से सवाल उठ रहे है कि
* आखिर "क्यों" इस फिल्म को प्रतिबंधित किया जा रहा है ?
* आखिर "क्यों" किसी को उसकी बात कहने से रोका जा रहा है जबकि अभिव्यक्ति की आजादी मूल अधिकार है
* आखिर "क्यों" देशभर के राजपूत एक काल्पनिक पात्र के लिये वास्तविकता से लड़ने को उतावले हो रहे है
* आखिर "क्यों" करणी सेना पद्मावती की रिलीज को रोकने पर अड़ा है ।

उपरोक्त तमाम "क्यों ?" के जवाब बारी - बारी से आपके सामने रख रहा हूँ, पहले "क्यों" जवाब है कि यह फ़िल्म राजपूतों की भावनाएं आहत कर रही है इसलिए इसे बैन किया जाना चाहिए । जबकि तमाम इतिहासकारों के मुताबिक पद्मिनी ( पद्मावती ) नाम की रानी जरूर हुई थी पर बाकी सभी बातें काल्पनिक है, जिनकी ऐतिहासिकता शत प्रतिशत संदिग्ध है । मलिक मोहम्मद जायसी रचित पद्मावत नामक महाकाव्य में लिखे ऐतिहासिक तथ्य हर तरह अप्रासंगिक है । इस संदर्भ में सर्वाधिक उद्धृत तथा प्रमाणभूत मत महामहोपाध्याय रायबहादुर गौरीशंकर हीराचंद ओझा का मत माना गया है। ओझा जी ने पद्मावत की कथा के संदर्भ में स्पष्ट लिखा है कि "इतिहास के अभाव में लोगों ने पद्मावत को ऐतिहासिक पुस्तक मान लिया, परंतु वास्तव में वह आजकल के ऐतिहासिक उपन्यासों की सी कविताबद्ध कथा है, जिसका कलेवर इन ऐतिहासिक बातों पर रचा गया है कि रतनसेन (रत्नसिंह) चित्तौड़ का राजा, पद्मिनी या पद्मावती उसकी राणी और अलाउद्दीन दिल्ली का सुल्तान था, जिसने रतनसेन (रत्नसिंह) से लड़कर चित्तौड़ का किला छीना था। बहुधा अन्य सब बातें कथा को रोचक बनाने के लिए कल्पित खड़ी की गई है; क्योंकि रत्नसिंह एक बरस भी राज्य करने नहीं पाया, ऐसी दशा में योगी बन कर उस की सिंहलद्वीप (लंका) तक जाना और वहाँ की राजकुमारी को ब्याह लाना कैसे संभव हो सकता है। उसके समय सिंहलद्वीप का राजा गंधर्वसेन नहीं किन्तु राजा कीर्तिनिश्शंक देव पराक्रमबाहु (चौथा) या भुवनेक बाहु (तीसरा) होना चाहिए। सिंहलद्वीप में गंधर्वसेन नाम का कोई राजा ही नहीं हुआ। उस समय तक कुंभलनेर (कुंभलगढ़) आबाद भी नहीं हुआ था, तो देवपाल वहाँ का राजा कैसे माना जाय ? अलाउद्दीन 8 वर्ष तक चित्तौड़ के लिए लड़ने के बाद निराश होकर दिल्ली को नहीं लौटा किंतु अनुमान 6 महीने लड़ कर उसने चित्तौड़ ले लिया था, वह एक ही बार चित्तौड़ पर चढ़ा था, इसलिए दूसरी बार आने की कथा कल्पित ही है।"


जबकि इतिहास पर एक नजर डालें तो उसमें हजारों राजपूत राजाओं ने अपना राजपाट बचाने के लिये अपनी बहन - बेटियां मुगल / मुस्लिम शासकों से ब्याही है । अगर अकेले राजस्थान की बात करें तो 15वीं सदी से लेकर 20वीं तक का इतिहास खंगाला जाये तो हजारों नाम मिलेंगे, जिनमें राजस्थान के प्रमुख रजवाड़े जोधपुर, आमेर ( जयपुर ) , अजमेर , चितौड़, बीकानेर आदि से दर्जनों बहन / बेटियों को ब्याहा गया है । और इन शादियों में अकेली राजकुमारी ही नहीं भेजी जाती, बल्कि उनके साथ तमाम तरह की महिला नौकर भी भेजी जाती, जो कि एक तरह से राजकुमारी के साथ राजा को भेंट स्वरूप भेजी जाती थी । इसके अलावा इतिहास खंगाले तो पता चलता है कि अकबर का जोधपुर की राजकुमारी जोधा से विवाह हुआ था, ततपश्चात उसी जोधपुर राजघराने ने अपनी बेटियां फिर से मुगलों से ब्याही थी जिनमें जहांगीर की पहली बीबी उसकी माँ जोधा की भतीजी थी तो जहांगीर की दूसरी बीबी जोधा के भतीजे की बेटी थी ।

चलिए, एक बरगी मान भी लिया जाए कि पद्मावती असल मे हुई थी, और उसके लिये 2 साल युद्ध चला हो तो अब जब इतने अनगिनत उदाहरण इतिहास में भरे पड़े है तो फिर राजपूत समाज द्वारा विरोध क्यों किया जा रहा है ?

अब आते है अभिव्यक्ति की आज़ादी पर, जिसपर पिछले कुछ सालों में जोर जबरदस्ती से प्रहार किए गए है । उदाहरण के तौर पर डॉ. दाभोलकर, गोविंद पंसारे, प्रो. कुलबर्गी, गौरी लंकेश के नाम प्रमुख है जिनकी हत्या तक कर दी गयी । इन सब पर कोई एक्शन न होना यह दर्शाता है कि ये तमाम हत्याएं सरकार की शह पर हुई है ।

इस फ़िल्म का मुखर विरोध करने वाली करणी सेना का मुखिया, सुखबीर सिंह गोगामेड़ी, खुद एक स्टिंग में यह कहता पाया गया है कि पैसे ले-देकर हम इसे खत्म कर सकते है, विरोध तो सिर्फ दिखावा है ।
आपको बता दूं कि ये वही सुखदेव सिंह गोगामेड़ी है जिसपर कई आपराधिक केस चल रहे है और चुरू और हनुमानगढ़ जिले का छंटा हुआ बदमाश है, जो चुनाव भी लड़ चुका है और कुछ साल पहले ही अचानक से करणी सेना का प्रदेश अध्यक्ष बन गया था । अब सवाल ये उठता है कि क्या राजपूत समाज के पास नेतृत्व की इतनी कमी है जो एक अपराधी पूरे समाज की दशा और दिशा तय कर रहा है ।

ये सब बातें तो हुई पद्मावती ( अब पद्मावत ) को लेकर, पर इन सबके इतर एक मनोवैज्ञानिक पहलू और भी है जिसकी पड़ताल हमें करनी चाहिये, वो है कि आखिर क्यों लोग देशभक्ति/संस्कृति के नाम पर परोसे जा रहे झूठ पर आसानी से यकीन कर लेते है और बिना सच जाने ही मार-काट, हिंसक प्रदर्शन पर उतारू हो जाते है ?

इसके पीछे सबसे बड़ा कारण है अशिक्षा, तर्कविहीन समाज का । ये दंगा फसाद फैलाने वाले आम लोग नही है, ये किसी संगठन/विचारधारा विशेष के लोग है जो देशभक्ति/संस्कृति के नाम पर बवण्डर खड़ा करते है । चूँकि भारत का पिछले 300 सालों का इतिहास धार्मिक और सामाजिक वैमनष्य का रहा है, ज्यादातर लोग धार्मिक तौर पर असहिष्णु है इसलिये धर्म के नाम पर आसानी से भड़क जाते है ।
अगर कुछ विशेष उदाहरण छोड़ दिए जाएं तो आम आदमी मार - काट और हिंसक प्रदर्शन करने को इतनी आसानी से उतारू नही होता है । हां, अपनी प्रतिक्रियाएं जरूर दर्ज करवाता है ।
द्वितीय विश्वयुद्ध के समय हिटलर ने गोएबल्स नामक व्यक्ति को अपना प्रचारमंत्री ( जैसे PM नरेंद्र मोदी के लिए अमेरिकन APCO ) नियुक्त किया था जिसकी सीधी सी थ्योरी थी कि एक झूठ को अगर 100 बार बोला जाए तो लोग उसे सच मानने लग जाते है क्योंकि आम आदमी जीवन के संघर्षों में इस कदर उलझा रहता है कि उसके पास सच जानने जितना समय नहीं बचता है और वो अंततः उस भेड़चाल का हिस्सा बन जाता है ।
अगर इस भेड़चाल को रोकना है तो गलत और भ्रामक सूचनाएं फैलाने वाले तत्त्वों को रोकना होगा और समाज को शिक्षित कर उसे अधिक से अधिक तर्कशील बनाना होगा ।

Wednesday, 6 December 2017

6 December

आज 6 दिसंबर है, बहुत से लोग है जो आज शौर्य दिवस मनाते है और बहुत से लोग शोक दिवस, दोनों की अपनी अपनी वजहें है, पर मुद्दा कॉमन है बाबरी मस्जिद, इसलिये दोनों गुट एक दूसरे के विरोध में है, खूब लिखते है, ये जानते हुए भी कि जो बीत चुका वो बीत चुका, और जो नहीं होगा वो नहीं होगा । उसे भूलकर आगे बढ़ने में ही सबकी भलाई है, पर लोगों के सर पर एक सनक सवार है, धर्म की सनक । ये ऐसी सनक है जो बर्बादी के सिवाय कुछ नहीं देती, बाबरी - गोधरा तो बस नमूने भर है, आये रोज इसके हत्थे चढ़ते लोगों की तो गिनती ही नहीं है ।

उस तरह के तमाम लोगों की तरह मैं भी दोनों दिवस मनाता हूँ, मेरे लिये भी आज का दिन शौर्य या शोक दिवस है, पर मेरी वजह अलग है, मैं शोक दिवस मनाता हूँ, क्योंकि आज के दिन भारतीय संविधान के शिल्पकार, बराबरी और जाति उन्मूलन के अगुआ, महान विद्वान बाबासाहेब भीमराव अंबेडकर जी आज ही के दिन हमें छोड़कर इस दुनिया से चले गए थे, इसलिये मेरे लिये शोक दिवस है ।
मैं शौर्य दिवस मनाता हूँ क्योंकि आज ही के दिन अपने शौर्य से दुश्मनों को पराजित करने वाले और जीवित परमवीर चक्र प्राप्त करने वाले भारत के एकमात्र सपूत कर्नल होशियार सिंह ने भी आज ही के दिन इस दुनिया को विदा कहा था ।

इसलिये दोनों सपूतों को विनम्र श्रद्धांजलि अर्पित करता हूँ और बाबरी वालों के लिये सद्बुद्धि की कामना करता हूँ
जय भीम !
जय हिंद !

Sunday, 26 November 2017

AAP का 5वां जन्मदिन #5YearsOfAAPRevolution

आज से 5 साल पहले आज 26 November के दिन आम आदमी पार्टी का जन्म हुआ था, चूँकि जन्म के दिन देश का संविधान लागू हुआ था, इसलिये उसी संविधान की हमने घुट्टी ( घोषणा पत्र ) दी, और उसी की पहली लाइन " हम भारत के लोग ... " से बच्चे का नामकरण किया, " #AamAadmiParty "
बच्चे पालन पोषण और मजबूती के लिये " स्वराज " की डोज़ दी गयी, देशभर के लोगों ने बच्चे का ख्याल रखा और अपने पैरों पर खड़ा होना सिखाया, लुढ़कते लुढ़कते सालभर में ये बच्चा चलना सीखा, फिर दौड़ना शुरू किया, छोटे छोटे अड़ंगे लगाए गए पर सबके आशीर्वाद और प्यार से सभी लोगों के चेहरे पर मुस्कान बिखेरते हुये दौड़ रहा था कि 49 दिन बाद बीजेपी और कांग्रेस ने मिलकर इसे गिरा दिया, हिम्मत करके फिर खड़ा हुआ और देशभर में घूमकर पंजाब होते हुये आगे बढ़कर 4 लोकसभा सीटों के साथ लोकसभा में पहुँचा । लोकसभा के बाद फिर संभला, इस बार अड़ंगा लगाने वालों की पहचान करना सीख गया था इसलिये अड़ंगा लगाने वालों को धूल चटाते हुये और इस बार दिल्ली के लोगों के प्यार और विश्वास ने 70 में 67 सीट देकर रामलीला मैदान होते हुये दिल्ली विधानसभा में पहुँचा । दिल्ली में सबको खुश रखा तो पंजाब के लोगों ने भी उसी प्यार के साथ बुलाया और वहाँ के अकाली दल के शोषण को खत्म कर 20 सीटों के साथ पंजाबियों ने बड़े सम्मान के साथ विधानसभा में मुख्य विपक्ष बनाकर बैठाया और गोआ में भी प्यार सम्मान मिला, जिसकी बदौलत हम जल्द ही राष्ट्रीय पार्टी का दर्जा प्राप्त करने वाले है ।

इस तरह आज 5 साल बाद इस छोटे से बच्चे ने उन बूढ़ों को बदलने पर मजबूर कर दिया तो स्वभाव से अकड़ू थे और हर किसी को मुँह नहीं लगाते थे । इस बच्चे की जिद की वजह से ही नेताओं की इज्जत कही जाने वाले पगड़ी लाल बत्ती को नीचे उतारना पड़ा । इन 5 सालों में इस बच्चे ने हर उस आदमी को बदल दिया जो ये कहता था कि इस देश का कुछ नहीं हो सकता, आज सब उस बच्चे की ओर प्यार से देखकर यही कहते है, " अगर नियत अच्छी हो तो इस देश का भी बहुत कुछ हो सकता है ।"

हमें इस बच्चे को प्यार से पालना है, अगर गलती करे तो पहले इसे समझाना है, फिर भी न समझे तो सख्ती से पेश आना पड़ेगा । इसे हर हाल में सहेज कर रखना है, यही हमारा भविष्य है । लेकिन अगर कोई इस बच्चे की तरफ गन्दी नजर डालेगा तो उस आँख को ही खत्म कर देंगे

Thursday, 28 September 2017

भगतसिंह की शिक्षा, व्यवस्था में फैले जुल्म और अन्याय के खिलाफ बागी तैयार करती है

कुछ साथी लगातार सवाल कर रहे है कि सरकार भगतसिंह को और भगतसिंह के लिखे हुये को पाठ्यक्रम में शामिल क्यों नहीं करती ? इसके पीछे वो तर्क देते है कि भगतसिंह की स्वीकार्यता गाँधी, पटेल, सुभाषचंद्र बोस, नेहरू, इंदिरा, जयप्रकाश नारायण के बराबर या ज्यादा ही रही है तो लोगों को पता लगने देना चाहिये कि भगतसिंह कौन थे और उनके विचार क्या थे ?


साथियों, आपके इस सुझाव से 100% सहमत हूँ । अकेला मैं ही नहीं देश की अधिकांश आबादी सहमत होगी । आज भगतसिंह का नाम तो बड़ा बन गया है पर उनके विचार बड़े नहीं बन पाए । इसका परिणाम ये हुआ कि भगतसिंह के विरोधी विचारों वाले लोग भी भगतसिंह के नाम पर ठेकेदारी करने लग गए ।
‌भगतसिंह का एक लेख था, " मैं नास्तिक क्यों ? " जिसमें उन्होंने बताया कि वो नास्तिक क्यों बने, कैसे बने, ईश्वरीय सत्ता को क्यो नकारा, ईश्वर के नाम पर कैसे लोगों को बहकाया जाता है, कैसे धर्म के नाम पर मानसिक विकार उत्पन्न किये जाते है, अध्यात्म, धर्म से होते हुये कैसे एक धंधा बन गया है आदि आदि । उपरोक्त सवालों के जवाब उन्होंने आज से करीब 90 साल पहले दे दिए थे पर आज भी धर्म की समस्या ज्यों की त्यों मुँह बाये खड़ी है या यूँ कहूँ कि उससे ज्यादा विकृत अवस्था में है । और आज जो भगतसिंह के नाम पर संगठन बने है वो उनकी इस शिक्षा को पढ़े बिना हर वो काम कर रहे है जो भगतसिंह ने करने को मना किया था, इसमें सबसे बड़ा नाम भगतसिंह क्रांति सेना का है जो धर्म की राजनीति का बढ़ चढ़कर समर्थन करती है ।

वहीं दूसरी ओर मान लो यदि आज स्कूली पाठ्यक्रम में "मैं नास्तिक क्यों ?" पढ़ाया जाए तो सबसे बड़ा सवाल खड़ा होगा अल सुबह होने वाली ईश्वरीय/सरस्वती वंदना पर । इस ब्राह्मणवादी शिक्षा व्यवस्था को मजबूत करने वाली सबसे महत्वपूर्ण कड़ी को ही जब छात्र नकार देगा तो धार्मिक दुकानें हिलना लाजिमी है ।

भगतसिंह ने छात्रों और युवाओं को सम्बोधित करते हुए 2 पत्र लिखे, जिसमें पहला था 1928 में कीर्ति में छपा " विद्यार्थी और राजनीति ", जिसमें वो कहते है "जिन नौजवानों को कल देश की बागडोर हाथ में लेनी है, उन्हें आज अक्ल के अन्धे बनाने की कोशिश की जा रही है। इससे जो परिणाम निकलेगा वह हमें खुद ही समझ लेना चाहिए। यह हम मानते हैं कि विद्यार्थियों का मुख्य काम पढ़ाई करना है, उन्हें अपना पूरा ध्यान उस ओर लगा देना चाहिए लेकिन क्या देश की परिस्थितियों का ज्ञान और उनके सुधार सोचने की योग्यता पैदा करना उस शिक्षा में शामिल नहीं?यदि नहीं तो हम उस शिक्षा को भी निकम्मी समझते हैं, जो सिर्फ क्लर्की करने के लिए ही हासिल की जाये। ऐसी शिक्षा की जरूरत ही क्या है? कुछ ज्यादा चालाक आदमी यह कहते हैं- “काका तुम पोलिटिक्स के अनुसार पढ़ो और सोचो जरूर, लेकिन कोई व्यावहारिक हिस्सा न लो। तुम अधिक योग्य होकर देश के लिए फायदेमन्द साबित होगे।”
बात बड़ी सुन्दर लगती है, लेकिन हम इसे भी रद्द करते हैं,क्योंकि यह भी सिर्फ ऊपरी बात है। "


और दूसरा लेख ( सन्देश ) था 1929 में पंजाब छात्रसंघ में पढ़कर सुनाया गया, जिसकी अध्यक्षता सुभाष चन्द्र बोस ने की थी, वो लिखते है कि
" इस समय हम नौजवानों से यह नहीं कह सकते कि वे बम और पिस्तौल उठाएँ। आज विद्यार्थियों के सामने इससे भी अधिक महत्वपूर्ण काम है। आनेवाले लाहौर अधिवेशन में कांग्रे़स देश की आज़ादी की लड़ाई के लिए जबरदस्त लड़ाई की घोषणा करने वाली है। राष्ट्रीय इतिहास के इन कठिन क्षणों में नौजवानों के कन्धों पर बहुत बड़ी जिम्मेदारी आ पड़ेगी। यह सच है कि स्वतन्त्रता के इस युद्ध में अग्रिम मोर्चों पर विद्यार्थियों ने मौत से टक्कर ली है। क्या परीक्षा की इस घड़ी में वे उसी प्रकार की दृढ़ता और आत्मविश्वास का परिचय देने से हिचकिचाएँगे? नौजवानों को क्रांति का यह सन्देश देश के कोने-कोने में पहुँचाना है, फैक्टरी कारखानों के क्षेत्रों में, गंदी बस्तियों और गाँवों की जर्जर झोपड़ियों में रहने वाले करोड़ों लोगों में इस क्रांति की अलख जगानी है, जिससे आजादी आएगी और तब एक मनुष्य द्वारा दूसरे मनुष्य का शोषण असम्भव हो जाएगा। पंजाब वैसे ही राजनीतिक तौर पर पिछड़ा हुआ माना जाता है। इसकी भी जिम्मेदारी युवा वर्ग पर ही है। आज वे देश के प्रति अपनी असीम श्रद्धा और शहीद यतीन्द्रनाथ दास के महान बलिदान से प्रेरणा लेकर यह सिद्ध कर दें कि स्वतन्त्रता के इस संघर्ष में वे दृढ़ता से टक्कर ले सकते हैं। "


अब वापस लौटते है भगतसिंह को पाठ्यक्रम में शामिल करने के मुद्दे पर, इसके लिये हमें सबसे पहले भगतसिंह के विद्यार्थियों के नाम लिखे उपरोक्त तीनों पत्र पढ़ने बहुत जरूरी है । इन पत्रों को पढ़ने के बाद एक चीज साफ साफ समझ आती है, वो है जुल्म न सहने और हक़ की लड़ाई का संदेश । अब आप सोचिये कि भगतसिंह को यदि पाठ्यक्रम में शामिल किया तो
- ब्राह्मणवादी व्यवस्था के खिलाफ खड़े होंगे
- छात्र अपने अधिकार जान जाएंगे
- राजनीतिक रूप से परिपक्व हो जायेंगे
- हुक्मरानों से सवाल करेंगे
और यदि ये सब हुआ तो जाहिर सी बात शोषक वर्ग की जड़ें हिल जायेगी और जल्द ही उनकी सत्ता के खिलाफ जनक्रांति हो जायेगी जिसमें सत्ता जनता के हाथों में होगी और शोषक या तो मार दिए जाएंगे या काल कोठरी में भेज दिए जाएंगे, उनकी पूँजी लोकहित में राष्ट्रीय संपदा घोषित कर दी जायेगी ।
तो अब आप ही बताइये कि कौन अपने जमे जमाये साम्राज्यों के खिलाफ किसी को खड़ा होने देना चाहेगा ?  इसलिये हमें ये उम्मीद करनी छोड़ देनी चाहिये कि सत्तासीन भगतसिंह की बातें आमजन तक पहुँचने देंगे, क्योंकि भगतसिंह की शिक्षा, व्यवस्था में फैले जुल्म और अन्याय के खिलाफ बागी तैयार करती है ।

Saturday, 9 September 2017

फौज

बादशाह बोला शाह से

"तैयार करो एक ऐसी फौज,
जो ...
हम कहे तो चले,
हम कहे तो रुके,
हम कहें तो बोले,
हम कहे तो खामोश,
हम कहें तो मारे,
हम कहें तो बख्शे"

शाह ने फरमाया

"हुजूर,
गुस्ताखी के लिये मुआफी,
पर ..
एक दिक्कत है,
फौज में होंगे लोग,
और
लोग वैसा ही करे जैसा हम कहे
ये जरूरी नहीं,
क्योंकि...
वाे सोच सकते है,
इसलिये फौज में जानवर रखो, इंसान नहीं "

शाह ने आगे फरमाया

"जानवर भरने से अच्छा,
इन्ही लोगों में भर दो - भूख/गरीबी/डर और अंधविश्वास
और मिला दो थौङा सा जाति, धर्म का बारूद,
फिर शोषण का दु:ख और मौत का भय होगा,
फिर दिलों में बदले की आग और इन्सानियत की राख होगी"

( यह कविता आज पाश के जन्मदिन पर लिखी थी । इसमें पहले 2 पैरा मेरे लिखे है और अंतिम पैरा साथी सुमित ने लिखा है )

डॉ कलाम को श्रद्धांजलि

डॉ. एपीजे अब्दुल कलाम (Avul Pakir Jainulabdeen Abdul Kalam ) का जन्म 15 October 1931 को तमिलनाडु के Rameswaram में हुआ । इन्होंने 1960 ...