गाँधीजी ने स्वराज के वर्षो पूर्व 1909
में ही हिन्द स्वराज जैसी छोटी-
सी किताब लिखकर अपनी कल्पना के
स्वराज का चित्र खींचा था। स्वराज
प्राप्ति के लिए उन्होंने नैतिक साधनों
का इस्तेमाल का व्यापक आंदोलन
किया। लेकिन गाँधीजी के हत्या से यह
संभव नहीं हो पाया।
पाश्चात्य लोकतांत्रिक देशों में चुनाव के
साथ-साथ प्रबल लोकमत-ध्र्मसंस्था,
विद्यापीठ, श्रमिक संगठन, प्रेस
इत्यादि शक्तियों द्वारा शासन
की मनमानी पर चतुर्विध् अंकुश लगाने
का काम होता है। भारत की लोकशाही में
इसका अपेक्षाकृत अभाव है। चुनाव के
लिए राजनीतिक दलों द्वारा लगने
वाला खर्च सरकार द्वारा किया जाना,
सानुपातित प्रतिनिधित्व (प्रपोर्शनल
रिप्रेजेंटेशन), प्रतिनिधि का वापस बुलाने
का अधिकार, मतदाता को अभिक्रम
का अधिकार, आममत आदि अनेक
माध्यमों से कुछ देशों में
लोकशाही की मनमानी पर अंकुश रहता है।
लोकतंत्र के दो प्रकार हैं।
पहला केन्द्रित प्रतिनिधिक लोकतंत्र।
यहां चुनाव में जीते हुए लोक
प्रतिनिधि शासन की सारी सत्ता निहित
होती है। उसे वापस
नहीं बुलाया जा सकता। दूसरा,
विकेन्द्रित सहभागी लोकतंत्र इसमें
ज्यादा से ज्यादा सत्ता नीचे की ईकाई
के पास होती है।
यानी ग्रामसभा नगरपालिका के पास
होती है। केन्द्र यानी संसद
या विधानसभा के हाथ में कम से कम
सत्ता रहती है। संपूर्ण विकेन्द्रित
लोकतंत्र तो संभव ही नहीं है
क्योंकि सुरक्षा, विदेश नीति, दूसरे
देशों के साथ कार्य व्यवहार,अनेक नीचे
की ईकाईयों के कार्यों का समन्वय, देश
में एक प्रकार की मुद्रा का प्रचलन
इत्यादि विषयों में एक गांव (या नगर)
क्या कर सकेगा? एकसूत्रता साघने और
समन्वय बिठाने का कार्य भी केन्द्र के
पास ही स्वाभाविक रूप में रहेगा। लेकिन
बचे हुए सारे विषय और उनके कारोबार
का अधिकार प्राथमिक ईकाई के पास
रहने चाहिए। इससे काम ठीक होगा,
जल्दी होगा, मितव्ययितापूर्ण और
भ्रष्टाचार से मुक्त होगा और सामान्य
व्यक्ति की पहुंच के भीतर होगा। भारत
के लोगों को इसका अनुभव प्रतिदिन
होता ही है।
शंका-समाधान
1. शंका: इससे केन्द्र कमजोर होगा।
केन्द्र के अधिकार क्षेत्र में विषय कम
करने से केन्द्र कमजोर होगा,
ऐसी शंका अनेक लोग प्रकट करते हैं।
समाधान: परिणाम
ऐसा नहीं होगा क्योंकि लोगों को अपनी
शासन व्यवस्था स्वयं करने
को अधिकाधिक स्वतंत्रता दी जाए तो वे
राष्ट्र के रूप में कहीं अधिक एकताबद्ध
और शक्तिशाली होंगे। भारत में रहने वाले
भिन्न-भिन्न समुदाय अधिक प्रेम से एक
साथ रह सकेंगे। अपने विषय अपने हाथ
में केन्द्रित करने वाले बलवान राष्ट्र
का बाहरी रूप ही बलवान होने का भास
होता है। ऐसे केन्द्र को अंदर से अनेक
तरह के दबावों और तनावों के बीच काम
करना होता है। उसे विघटित होकर बिखर
जाने का खतरा बना रहता है। इस तरह
का बलवान केन्द्र लोकतंत्र से धीरे-धीरे
दूर और अधिकाधिक सर्व
सत्तावादी होता जा रहा है।
विकेन्द्रीकरण से केन्द्र निर्बल
हो जाएगा, यह तर्क गलत है। निर्वाचित
सत्ता हर स्तर पर कार्य करती है
जिसके लिए वह सक्षम है। जो विषय
उसकी क्षमता से बाहर हैं उन्हें ही ऊपर
के स्तर पर सौंपे जाते हैं। इसलिए यह
क्षमता का प्रश्न बन जाता है।
विषयों की संख्या किसी इकाई के पास
ज्यादा हों तो वह बलवान होती है,
ऐसा नहीं है। ऊपरी स्तर पर भारी-
भरकम और फैला हुआ केन्द्र, जो हर
विषय पर अपनी टांग अड़ाता हो, देखने में
भले ही मजबूत मालुम पड़े लेकिन वास्तव
में होगा कमजोर, खोखला, मंदगति और
निकम्मा। राष्ट्रीय एकता और
शक्ति इस बात पर निर्भर नहीं है
कि केन्द्रीय सरकार के अधिकार क्षेत्र
के विषयों की सूची कितनी बड़ी है,
बल्कि भावनात्मक एकता, जनता के
समान अनुभव, आकांक्षाएं, सहिष्णु और
सबसे अधिक राष्ट्रीय नेताओं
की विशाल हृदयता आदि स्थायी तत्वों में
निहित है।
2. शंका: पिछडे़ गांव के
नागरिकों को सत्ता देना गलत है।
अपना शासन स्वयं करने
की योग्यता उनमें नहीं है।
समाधान: ऐसा इसलिए हुआ
क्योंकि सदियों तक ग्रामीण
जनता को कुछ विषयों में मजबूरन
पिछड़ी हालत में रखा गया है।
तथापि शहर के चुने हुए तबके के लोगों से
किसी भी अर्थ में
नैतिकता या बुद्धि की दृष्टि से वे पिछड़े
हुए नहीं हैं। यदि इसे मान भी लिया जाए
तो भी इस इस कारण उन्हें स्वशासन के
अधिकार से वंचित रखना गलत,
अलोकतांत्रित और धृष्टतापूर्ण होगा।
गुलाम भारत को अधिकार देने के बारे में
अंग्रेज यही तर्क देते थे। आखिर
सुराज्य, स्वराज का विकल्प
नहीं हो सकता। तथाकथित
पिछड़ी देहाती जनता पलटकर आगे बढ़े
हुए शहरी शिक्षितों से यह सवाल
नहीं पूछ सकती कि क्या वे राष्ट्र
का शासन सफलतापूर्वक कर सके हैं?
अवश्य की विकेन्द्रीकरण
द्वारा सत्ता मिलने पर गलतियां होंगी।
लेकिन, पहले तो उत्तरदायित्व
को निभाने के लिए स्वशासन
की योग्यता और आवश्यक
क्षमता प्राप्त की जा सकती है। फिर
पिछडे़पन का इलाज जनता को उसके
सार्वभौम अधिकारों से वंचित
रखना नहीं, बल्कि जितना शीघ्र हो सके
उसे शिक्षित और जागृत करना है।
3. शंका: ऐसा होगा तो गांव पीछे
जाएंगे।
समाधान: विकेन्द्रीकरण के कारण
गांवों में परंपरागत सुविध-संपन्न एवं
बलवान वर्ग अपना प्रभुत्व स्थापित
करेगा, तो गांव फिर से पीछे जाएंगे।
लेकिन इसका इलाज जनता पर
अविश्वास करना और लोकतंत्र के दायरे
से आगे बढ़ने से रोकना नहीं है।
बल्कि स्वयं विकेन्द्रीकरण के ढांचे में
ऐसी सुरक्षात्मक व्यवस्था कर
दी जाए, जिससे नेतृत्व करने वालों के
लिए समाज के पिछड़े और निर्बल
लोगों को ऊपर उठाना अनिवार्य बना दे।
4. शंका: कार्य असंभव है।
इनता बड़ा की लगभग असंभव-सा कार्य
कैसे हो सकेगा।
समाधान: इसका उत्तर यह है कि हर
असंभव-सा कार्य करने से पहले असंभव
ही लगता है। प्रारंभ करने के बाद वह
हो जाता है, उसकी इतिहास
गवाही देता है। शस्त्राविहीन राष्ट्र ने
शांतिपूर्ण उपायों द्वारा स्वतंत्रता कैसे
प्राप्त की? देशी राज्यों को राष्ट्र के
रूप में कैसे समाहित कर लिया गया? चांद
पर पहुंचने का असंभव कार्य मानव ने
किस प्रकार कर दिखाया? इसलिए
निराश होने की जरूरत नहीं है,
बल्कि प्रयत्नों की पराकाष्ठा करने
की आवश्यकता है।
5. शंका: बढ़ती हुई बेकारी, आर्थिक
विषमता, वैश्वीकरण, प्रदूषण और
सांप्रदायिकता इत्यादि चुनौतियों का
जवाब कौन देगा? ऐसा आज के नेता और
सरकार कैसे करेंगे?
समाधान: इसकी राह हम देखते रहे
तो परिवर्तन हो चुका। इन्हीं राजनीतिक
और आर्थिक स्वार्थों ने तो इन
चुनौतियों को पैदा करने की आग लगाई
है। इनमें से कुछ लोग की अपवादस्वरूप
निकलेंगे, जिन्हें खोना नहीं है। लेकिन ऐसे
सारे समूहों से यह
अपेक्षा करना निरा भोलापन होगा। इस
कार्य की पहल स्वयं ही करनी होगी।
डॉक्टर ही दवाई पी ले तो रोगी स्वस्थ
नहीं होगा। इसलिए परिवर्तन की पहल
स्वयं का करनी होगी।
विनोबा हमेशा कहते थे- आज संसार में
देइज्म चलता है। यानि उपाय सरकार करे
या अन्य कोई करे-हम नहीं। सर्वोदय
का प्रतिपादन है कि हम इसे करेंगे। हम
वीइज्म के उपासक बनें।
साभार: लोक-स्वराज
क्यों, क्या और कैसे?
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