"जाने किसकी नजर लग गयी है अब...." ये कविता गाँधी जी और युवा साथी रोहित वेमुल्ला के संघर्ष समर्पित है ....
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सदियों पहले,
मेरे गाँव में फसलें ऊगा करती थी, प्यार, भाईचारे और सद्भाव की,
जाने किसकी नजर लग गयी है अब,
जो उगती हैं फसलें, घृणा, दुश्मनी और तकरार की ।
सदियों पहले,
निराई की थी झूठ और अत्याचार की,
जाने किसकी नजर लग गयी है अब,
जो फिर से उग आई हैं झाड़ियाँ ईर्ष्या और अहंकार की ।
सदियों पहले,
बुवाई की थी मानवता और सदाचार की,
जाने किसकी नजर लग गयी है अब,
जो उग आई है खरपतवार कदाचार की ।
सदियों पहले,
पकने वाली थी फसल मानवता की,
जाने किसकी नजर लग गयी है अब,
जो पड़ा अकाल तो उजड़ गयी खेती सौहार्द की ।
सदियों पहले,
लहलहाती थी फसलें सत्य और अहिंसा की,
जाने किसकी नजर लग गयी है अब,
जो हो गयी है बंजर मिट्टी हिन्दुस्तान की ।
सदियों पहले,
मेरे गाँव में फसलें ऊगा करती थी, प्यार, भाईचारे और सद्भाव की,
जाने किसकी नजर लग गयी है अब,
जो उगती हैं फसलें, घृणा, दुश्मनी और तकरार की ।
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सदियों पहले,
मेरे गाँव में फसलें ऊगा करती थी, प्यार, भाईचारे और सद्भाव की,
जाने किसकी नजर लग गयी है अब,
जो उगती हैं फसलें, घृणा, दुश्मनी और तकरार की ।
सदियों पहले,
निराई की थी झूठ और अत्याचार की,
जाने किसकी नजर लग गयी है अब,
जो फिर से उग आई हैं झाड़ियाँ ईर्ष्या और अहंकार की ।
सदियों पहले,
बुवाई की थी मानवता और सदाचार की,
जाने किसकी नजर लग गयी है अब,
जो उग आई है खरपतवार कदाचार की ।
सदियों पहले,
पकने वाली थी फसल मानवता की,
जाने किसकी नजर लग गयी है अब,
जो पड़ा अकाल तो उजड़ गयी खेती सौहार्द की ।
सदियों पहले,
लहलहाती थी फसलें सत्य और अहिंसा की,
जाने किसकी नजर लग गयी है अब,
जो हो गयी है बंजर मिट्टी हिन्दुस्तान की ।
सदियों पहले,
मेरे गाँव में फसलें ऊगा करती थी, प्यार, भाईचारे और सद्भाव की,
जाने किसकी नजर लग गयी है अब,
जो उगती हैं फसलें, घृणा, दुश्मनी और तकरार की ।
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