( मेरे बहुत से मित्र पूछते हैं कि भाई तू नास्तिक क्यों है ? फिर अभी कुछ दिन पहले वृन्दावन में बालेन्दु स्वामी जी द्वारा आयोजित देहदान के एक कार्यक्रम में गया था, वहाँ सभी लोग नास्तिक ही आये थे, तो सबका सबसे एक ही सवाल था " सर, आप नास्तिक कैसे बने ? " और वहाँ एक दिन पहले " मैं नास्तिक क्यों ? " विषय पर चर्चा थी, तब मैं वहाँ झिझक और शर्मीले स्वभाव की वजह से बोल नहीं पाया था, तो सोचा सबके जवाब आज यहाँ लिख दूँ )
मैं नास्तिक क्यों ? इससे पहले एक सवाल और है जो मैं करना चाहूँगा खुद से और आप लोगों से, " मैं/हम आस्तिक क्यों ? " शायद इसका जवाब सभी के पास है, वो है क्योंकि हम उस धर्म को मानने वाले माता-पिता या पालनहार की सन्तान हैं । पर क्या आप माँ के पेट से ईश्वर, अल्लाह या जीसस के मंत्र जपते हुये पैदा हुये थे ? या pk की भाषा में कोई धार्मिक ठप्पा लेके पैदा हुये थे ? आपने पहली बार मन्दिर, मस्जिद, गुरूद्वारे या गिरजाघर को देखते ही वहाँ उस धर्म की प्रार्थना शुरू कर दी थी ?
यदि आपके सभी जवाब "नहीं" में है तो फिर आप आस्तिक कैसे हुये ? आप तो जन्मजात नास्तिक हुये । पहले तो हमें ये सोच बदलनी होगी कि हम जन्मजात आस्तिक होते हैं क्योंकि इंसान पैदा ही नास्तिक होता है फिर उसे आस्तिक बनाया जाता है ।
ये बात तो हुई किसी के अज्ञानतावश धर्म धारण करने की; जिसमें इंसानी बच्चे की समझ इतनी विकसित नहीं हो पाती कि वो इसपर कुछ सवाल कर सके । इसलिये वो अपने चारों तरफ के वातावरण को देखके यही सीखता है कि धर्म तो होना ही चाहिए, जहाँ उनके बनाये कुछ भगवान हों, जिनकी प्रार्थना करके उनको खुश करना पड़ता है ।
इस दूनिया में 2 तरह के लोग होते हैं, पहले जो नास्तिक से आस्तिक बन जाते और अपने धर्म के प्रति निष्ठा रखते हैं, हर बुरी बात का हर हालत में समर्थन करते हैं और ये मानते हैं कि एक शक्ति है, जो ये सृष्टी चला रही है और हम सब उसके बनाये मोहरे हैं । और उसको न मानने वाले उस धर्म के दुश्मन हैं । और दूसरे होते हैं वो जो नास्तिक से आस्तिक बन तो जाते हैं पर अपनी सभी इन्द्रियों को खुली रखते हैं, वो धर्म से सवाल करते है, तर्क करते है, व्यावहारिकता की कसौटी पर जाँचते हैं, यथार्थवादी होते हैं । इसलिये ये जल्द ही उस धर्म के दुश्मन घोषित कर दिये जाते हैं । और इस तरह वो फिर से अपने मूल यानि कि नास्तिकता की और अग्रसर होते हैं ।
यहाँ नास्तिकता का मतलब उस ईश्वरीय शक्ति का विरोध करना ही नहीं है, नास्तिकता का मतलब है सदैव खोज में रहना, निरन्तर चिंतन और नये विचार । जबसे आपने खोज, चिंतन और विचार करना छोड़ दिया तबसे आप पूर्ण रूप से नास्तिक भी नहीं रहे ।
मैं नास्तिक क्यों बना इसके पीछे मेरे जीवन में घटी कुछ घटनाओं का भी हाथ रहा है, जो मैं आगे विस्तार से लिखूँगा पर मेरी कुछ शर्तें थी अपनी जिंदगी जीनें की, जिनमें धर्म किसी भी साँचे में फिट नहीं बैठा । मैं कर्म और समय को सत्य मानता हूँ । तर्क में विश्वास करता हूँ पर धर्म तो तर्क के शुरू होते ही खत्म हो जाता है । मैं चाहता हूँ कि पंक्ति के अंतिम बन्दे को उसके अधिकार मिले जो धर्म नहीं दिला सकता है । साथ ही लालच और डर नहीं है तो आस्तिक होने का सवाल ही नहीं होता । लेकिन नास्तिक का मतलब ये भी नही कि आप धर्म को नकार के अपना एक अलग धर्म बना लो, मेरे हिसाब से नास्तिकता का मतलब है निरन्तर चिंतन, नये विचार और जीव मात्र की बिना लालच के सेवा । इसलिये नास्तिक बोल सकते हैं आप मुझे
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